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शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

जीवन परिचय चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी


            (चन्द्र प्रकाश चौधरी )


                संक्षिप्त जीवन परिचय -चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी
               
चन्द्र प्रकाश चौधरी का जन्म सन् 1990 उत्तर भारत के एक हिन्दू कुर्मी परिवार में हुआ था। इनका मूल जन्म निवास स्थान गांव खजुहा है । चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी एक किसान परिवार से है इनका वर्तमान निवास स्थान बैदोलिया अजायब है, जो बस्ती जिले में भगवान श्री राम के पवित्र जन्मस्थान और पौराणिक नगरी अयोध्या धाम से 55 किलोमीटर पूर्वोउत्तर में स्थित है। इनके पिता श्री राम दुलारे चौधरी एक मध्यम वर्गीय किसान है जो कि अपना कृषि का व्यवसाय कर रहे है, व  इनकी माता श्रीमती मालती चौधरी एक धार्मिक महिला है ये अपने चार भाईयो ( विक्रमा जीत चौधरी, कृष्ण कुमार चौधरी,रामानंद चौधरी ) मे से तीसरे है ।
  बेहद सरल स्वाभाव व मृदुभाषी चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी इन्होने गांव की प्राथमिक पाठशाला बैदोलिया अजायब, गौर, बस्ती से अपनी आरंभिक शिक्षा ली, और सन 2005 मे आदर्श जनता उ०मा० हलुआ,बस्ती से हाईस्कूल व 2007 में हंसराज लाल इण्टर कालेज गनेशपुर, बस्ती से इण्टरमीडियट की परीक्षाये प्रथम श्रेणीयों मे उत्तीर्ण किया |
सन् 2007 मे उच्च शिक्षा के लिए पूर्वांचल के सुप्रसिध्द महाविद्यालय फैजाबाद जिले के साकेत पी.जी.कालेज मे दाखिला लिया और वही से इन्होने सन 2010 मे चित्रकला,शिक्षाशात्र,समाजशात्र विषय के साथ बी.ए. व सन 2012 मे चित्रकला विषय के साथ एम.ए.की परीक्षायें प्रथम श्रेणीयो मे उत्तीर्ण किया |
 पूर्वांचल यूपी के एक प्रसिद्ध डिग्री कॉलेज अपनी परास्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह सन 2012 में कला पेशेवर अध्ययन के लिए देश के विविध संस्थानो से जुड़ कर चित्रकला का गहन अध्ययन किया और अपने जन्मजात कलात्मक गुणों के साथ उन्होंने कला के क्षेत्र मे प्रवेश किया ।
इसी दौरान इनकी मुलाकात जाने माने योग साधक व कला अाचार्य महेश योगी जी से हुई, और ऐ इन्ही को अपना कला व आदर्श मानकर उनके कला संस्थान ( सप्तरंग ललित कला संस्थान, अयोध्या ) मे प्रवेश लिया और महेश जी की सरण स्थली मे रह कर कला की साधना करने लगे | जिससे इनकी कला दिनो दिन. निखरती चली गयी | इसी बीच इन्हे राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन फैजाबाद द्वारा सम्मानित किया गया | फिर इन्होने सन 2011 मे अपने गृह जनपद बस्ती मे एकल चित्रकला प्रदर्शनी का आयोजन कर अपनी कला प्रतिभा का लोहा मनवाया, जिसकी जनमानस मे मुक्त कंठ से प्रशंसा की गयी | इसके बाद इनकी सफलताओ का जो दौर चला वह कभी नही थमा, इन्होने राज्य ललित कला अकादमी लखनऊ, के साथ साथ अलीगढ मुस्लिम विश्व विद्यालय, फैजाबाद, सुलतानपुर, अयोध्या , मनवर महोत्सव हर्रैया, बस्ती, अम्बेडकर नगर, कप्तानगंज आदि प्रदेश के विविध स्थानो व जनपदो मे अपने चित्र कृतियो का प्रदर्शन कर अपनी कला प्रतिभा का परिचय दिया | सन 2012 राज्यस्तरीय चित्रकला प्रदर्शनी देव इन्द्रावती पी.जी.कालेज कटहरी, अम्बेडकर नगर मे इन्हे "फस्ट एण्ड लास्ट" नामक चित्रकृती के लिए सुप्रसिध्द अन्तर राष्ट्रीय चित्रकार किशन सोनीजी द्वारा सम्मानित किया | 


चन्द्र प्रकाश चौधरी ने विविध माध्यमो से चित्रो की रचना की है जिनमे आयल, जल, क्रेयान, पेन्सिल स्केज प्रमुख है | मित्रो साल 2013 मे इन्हे रामकथा पर उत्कृष्ट चित्राकंन के तत्कालीन सी.ओ. बीकापुर तारकेश्वर पाण्डेय जी द्वारा सम्मानित किया गया व 2014 मे क्षेत्रीय कला मेला सुलतान पुर मे सुप्रसिध्द लोक विधा की चित्रकत्री डा. कुमुद सिंह जी सम्मानित किया गया | और इसी वर्ष इन्हे राष्ट्रीय कला मेला मे "दा फ्यूचर नामक कला कृति लिए विश्व की प्रथम महिला कला डी.लिट. प्रो.चित्रलेखा सिंह जी द्वारा सम्मानित किया गया | कला के साथ साथ बहुमुखी प्रतिभा के धनी चौधरी साहब को वाद विवाद, आशु भाषण, क्राफ्ट कला, आदि प्रतियोगिताओ मे प्रथम पुरस्कारो से सम्मानित होकर अपने जिले व क्षेत्र का नाम ऱोशन कर चुके है |


कलाकारी के साथ ही साथ चन्द्र प्रकाश चौधरी ने लेखन कार्यो मे भी अपनी दक्षता का परिचय दिया है बेहतरीन लेख व प्रभाव पूर्ण संवादो के दम पर इनकी रचनाये व लेख समाचार पत्रो मे अपना विशिष्ठ स्थान बना चुकी है |
महज 24 वर्ष मे उम्र मे ही इन्होने अपने कला गुरू महेश त्रिपाठी के जीवन लीला पर आधारित एक ग्रंथ की रचना की है जिसकी देश अनेको कलाविदो व लेखको ने मुक्त कंठ से सराहना की है |
इतना ही नही इन्होने इण्टर मीडिएट के विद्यार्थियो व कला पाठको के लिए, सन 2017 में "NATURE DRAWING" (प्रकृति चित्रण - पुष्प चित्रण) नामक पुस्तक का सृजन कर कला के विद्यार्थियो को एक कला सीखने का शसक्त मार्ग प्रसस्त किया । पुस्तक का यह संस्करण अध्येताओ की कलात्मक रूचि का विकास करेगा और किशोर कलाकारो की प्रतिभा के विकास को बहुमुखी आयाम देगा,एेसा इनका दृढ़ विश्वास है ।
 इन्होने सन 2017 मे एक फिर अपने गृह जनपद चित्रकला प्रद्रर्शनी का आयोजन कर जनमानस कला का प्रसार किया और इसी वर्ष इन्हे बस्ती जिले लोक प्रिय नेता पूर्व विधायक राना कृष्ण किंकर सिंह जी द्वारा सम्मानित किया गया ।
चन्द्र प्रकाश चौधरी द्वारा सृजित चित्र देश कई संग्रहालयो मे संग्रहित है और बस्ती जनपद के प्रमुख नेताओ जैसे राना कृष्ण किंकर सिंह, राम प्रसाद चौधरी, सी.ए.चंद्र प्रकाश शुक्ल आदि के निजी संग्रह मे सुसजित है
समाज सेवा मे भी कभी ए पीछे नही रहे ये स्काउट गाइड, रेडक्रास जैसी समाज सेवी संगठनो से जुड़े रहे है ।  ग्रामीण अंचल मे कला शिक्षा को लेकर इन्होने समय समय पर नि: शुल्क चित्रकला प्रशिक्षण शिविरो का व चित्रकला प्रतियोगिताओ आयोजन करते रहे है | अपनी प्रभाव चित्रकारी, लेखनी,व ओजपूर्ण संवादो से नित नित लोगो के दिलो दिमाग मे छाप छोड़ रहे युवा चित्रकार ने ग्रामीण गरीबों के बच्चो को मुफ्त मे शिक्षा व पाठ्य समाग्री वितरण आयोजन किया ।

चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी के पिता राम दुलारे चौधरी जी ।

प्रचार प्रसार से दूर सर्वथा दूर रहकर एकान्त  कला साधना के अभ्यासी युवा चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी जी ने अपने अल्पकाल मे अथक साधना की है ! भीड़ भाड़  और कोलाहल इन्हें कभी अभीष्ट नही रहे है । यही कारण है कि शहरो को छोड़ उन्होने ग्राम अंचल मे कला की दीर्घ साधना कर रहे है । कर्तव्य-पालन सबसे बड़ी ईश वन्दना है, इस सिध्दान्त का अक्षरत पालन करते हुए उन्होने कला अध्यापक से कला प्रवक्ता पद की गरिमा को निरन्तर बढा रहे है ।
इनकी कला साधना सदैव प्रशंसा की पात्र रही है । उनकी तूलिका ने न केवल मानव संवेगो और संवेदनाओ को आकार दिया है अपितु प्रकृति के विभिन्न रम्यरूपो को सजीवता के साथ साकार किया है । साथ ही ग्रामीण और शहरी गरीब बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्रदान करने के लिए ये वर्तमान समय मे गृह जनपद बस्ती मे विविध स्कूलो व संस्थाओ से जुड़कर नव निहालो मे कला की अलख जगा रहे है |

चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी के भाई वैवाहिक बंधन में बंधे।




9 जून 2025 दिन सोमवार को अपने छोटे भाई के विवाह के अवसर पर, बड़े भाईयों श्री विक्रमा जीत चौधरी जी,श्री कृष्ण कुमार चौधरी जी के साथ में। वर-वधू को सुखमय जीवन की मंगलकामनायें। 

छोटे सुपुत्र के शुभ विवाह 09 जून के अवसर पर आशिर्वाद कार्यक्रम में। हार्दिक मंगलकामनाएं ।



गुरु श्री श्री 1008 श्रीमहंत महामंडलेश्वर, डॉ.स्वामी महेश योगी जी मेरी नज़रों में।


कला मानव मात्र के रचनात्मक शक्ति की सौन्दर्यमय अभिव्यक्ति है। कला का सौन्दर्य कलाकार का अपना सौन्दर्य होता है। कला वास्तव में जीवन की धड़कन है, अहसास है। कला को समर्पित कला के अहसास की गंध से युक्त चित्रकारों में परम आदरणीय गुरुदेव कला गुरु श्री श्री 1008 श्रीमहंत, महामंडलेश्वर ब्रह्मर्षि डॉ. स्वामी महेश योगी का नाम एकाएक उभर कर सामने आता है। 
आप पूर्व असिस्टेंट प्रोफेसर डीआई एम, अवध वि.वि. अयोध्या। पूर्व डायरेक्टर- योग विभाग, मेवाड़ वि. वि. राजस्थान रहे हैं । गुरु देव महज 14 वर्ष की उम्र में घर का त्यागकर सन्यास के पथ पर चलते हुए अब तक 1065 योग, आयुर्वेद, कला व आध्यात्मिक शिविर का आयोजन किया है। गुरु देव ने अनेको विश्व कीर्तिमान बनाया है जिनमें महर्षि पतंजलि जी की जन्मभूमि कोंडर में अनवरत (15100000) कपालभाति प्राणायाम करने का विश्व रिकॉर्ड। अंबेडकर नगर डी. आई. एम. कॉलेज में अनवरत 76 घंटे योग मैराथन का विश्व रिकॉर्ड। गाजियाबाद मेवाड़ इंस्टीट्यूट में 51 घंटे अनवरत कपालभाति करने का विश्व रिकॉर्ड। गुजरात के अहमदाबाद में अनवरत 51 घंटे योग मैराथन कर कनाडा का रिकॉर्ड तोड़ने का विश्व रिकॉर्ड चित्तौड़गढ़ मेवाड़ विश्वविद्यालय में एक मिनट में 21 बार सूर्य नमस्कार करने का विश्व रिकॉर्ड। अयोध्या सरयू नदी में 7 घंटे में तेरह (13100) बार लगातार डुबकियां लगाने का विश्व रिकॉर्ड। लखनऊ में शीर्षासन में सवा घंटे कपाल भांति करने का विश्व रिकॉर्ड। अयोध्या श्री हनुमानगढ़ी में छः माह तक भोजन का त्यागकर 11 घण्टे प्रतिदिन यानी 2021 घंटे में (21826800) 2 करोड़ 18 लाख 26 हजार 8 सौ स्ट्रोक कपालभाति करने का विश्व रिकॉर्ड अपने नाम किया है, साथ ही साथ चित्रकला के क्षेत्र में अब तक 11000 से अधिक चित्रों का सृजन करने का विश्व कीर्तिमान। भारत के महापुरुषों पर आधारित दुनिया की सबसे बड़ी व्यक्ति चित्र श्रृंखला बनाने का विश्व रिकॉर्ड। चूना एवं गेरु़ से संपूर्ण रामायण व संपूर्ण महाभारत का चित्रांकन तथा दुनिया की सबसे बड़ी कैरी केचर पेंटिंग श्रृंखला बनाने का रिकॉर्ड। दुनिया की के बड़ी मोनोक्रोम पेंटिंग श्रृंखला बनाने का भी रिकॉर्ड है।


गुरुदेव की साहित्यिक यात्रा में भी अनेकों कीर्तिमान है जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी बायोग्राफी (दिव्य भारत गौरव ग्रंथ) लिखने का रिकॉर्ड। भारत के प्रणेता 321 ऋषियों के जीवन पर आधारित (भारत ऋषि जान एनसाइक्लोपीडिया) का लेखन कार्य। योग, कला व साहित्य में अब तक 32 पुस्तकों का लेखन कार्य। (विभिन्न युगों में श्री राम) विषय पर पर शोध कार्य प्रमुख है।
आपके आध्यात्मिक कार्यों में भारत के चारों दिशाओं में चार दिव्य योग धाम की स्थापना हेतु संपूर्ण भारतवर्ष में दिव्य भारत निर्माण यात्रा का संचालन। भारत के विविध राज्यों में श्री हनुमान भक्ति आंदोलन का संचालन एवं रूद्र राज योग शिविर का संचालन । मेरठ में अनवरत निराजल 101 घंटे तक अनवरत 2551 बार श्री हनुमान चालीसा पाठ करने का विश्व रिकॉर्ड है।
लोक सेवा कार्यो में गुरुदेव निरंतर अपने संस्थान के दिव्यांग व अन्य गरीब परिवार के बच्चों को लेकर योग, कला, साहित्य व अन्य क्षेत्रों में में अब तक 120 विश्व रिकॉर्ड बनाकर भारत का गौरव बढ़ाया।
आपने दिव्यांग व मूक बधिर विद्यार्थियों द्वारा 21000 कलाकृतियों का सृजन कर सबसे बड़ी चित्र श्रृंखला का विश्व रिकॉर्ड तथा योग में अनेकों विश्व रिकार्ड बनाया।
संसार में ऐसे विरले लोग ही मिलते हैं जिनकी प्रतिभा इतनी बहुमुखी रही हो। अध्यात्म, धर्म, मूर्ति एवं चित्रकला,भारतीय साहित्य, खोज-दर्शन, योग-विधा, मंचन व नाटक आदि विविध क्षेत्रों में आपकी विशेष उपलब्धि रही है।
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    "सर्वप्रथम जब हमने गुरुदेव को देखा तो मन में सोचा कि इतना साधारण व्यक्तित्व एक महान कलाकार है। कुछ यकीन नहीं हो रहा था। इनका सरल स्वभाव, स्नेहपूर्ण व्यवहार और साधारण परिधान को देखकर मेरा मन अपार श्रद्धा से भर गया, जितना भी हम गुरुदेव की महत्ता के बारे में सोचते हैं तो उतना ही हमारा मन अपार श्रद्धा से नत हो जाता है।
परम् श्रद्धेय श्री महेश योगी जी हमारे गुरू बंधु, सब प्रकार के दुख-सुख में इनके पास हमारा सहज भाव से आदान-प्रदान चलता रहता है। इनका आकर्षक व्यक्तित्व,अगाध ज्ञान, अद्वितीय प्रतिभा, विनम्रता, सादगी और मधुर विनोद का सुन्दर हमेशा हम शिष्यों को प्रभावित करता रहता है। इनकी खास विशेषता तो यह है कि ये हम विद्यार्थियों के बीच स्वयं एक विद्यार्थी के रूप में रहना ज्यादा पसंद करते हैं। गुरु जी के द्वारा कही गई एक बात अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। जिसका संकलन मेरे लिए एक ग्रंथ के बराबर है। इनके भाव पूर्णतया ओज़पूर्ण और विचार निःसंदेह निरन्तर कला बोध को नई क्रांति प्रदान करती है।
गुरु जी की शिष्य परंपरा एक वटवृक्ष के समान है। जिनमें अनेकों प्रतिभाएं विस्तार पा रही हैं। किंतु मैं अपने। आप को सौभाग्यशाली समझता हूं कि हमें गुरुदेव के जीवन के सबसे निकटतम रहकर एक विद्यार्थी के रूप में कला के गुर सीखने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।
वह ईश्वर की असीम अनुकम्पा से उत्पन्न एक अदभुत संयोग था जब 17 दिसम्बर दिन सोमवार सन् 2007 में गुरु जी से मेरी पहली बार मुलाकात हुई थी। तब मैं स्नातक प्रथम वर्ष का छात्र था। कुछ सहपाठियों के साथ मैं अपने शिक्षण कक्ष में बैठा था। तभी वहां बहुत सी साधारण परिधान में, हाथों में स्केच बुक एवं पेंटिंग लिए शिक्षण कक्ष में आपका प्रवेश हुआ, चेहरे पर चिंतन के भाव, कुशल पूर्ण व्यवहार, कलात्मकता से परिपूर्ण, ऐसा लगा जैसे कला साहित्य का एक नया संसार हमारे समक्ष आ गया हो। तत्पश्चात इन्होंने हम सभी का मधुर संवादों द्वारा परिचय लिया, और कला से संबंधित कई प्रश्न भी पूछे, जिसका इन्होंने कुशल मार्गदर्शक की भाँति उत्तर भी बताया था। इस समय मैं एक तरुण कलाकार था, इतना गूंढ अर्थ समझने में अबोध था। बचपन से ही कला में विशेष रुचि होने के कारण मेरी नजर इनके पेन्टिंग को देखने हेतु बार-बार लालायित हो रही थी।
अतः मैंने कलाकृति देखने के लिए अनुरोध किया। मेरे आग्रह को स्वीकार करते हुए कलाकृति को दिखाया जो तत्कालीन राष्ट्रपति डा. कलाम जी की थी जिसे देख मैं आश्चर्यचकित हो गया और वह मेरी आत्मा को छू गयी, मैं कुछ क्षणों तक उसे एक टक निहारता रहा तथा मन ही मन आपको गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया।
जब मैं कालेज से लौटकर शाम को अपने घर पर आया तो पूरी रात उस पेंन्टिग के बारे में सोचता रहा। मेरे जिज्ञासाएं गुरुजी से मिलने के लिये प्रेरित करती रहीं, कुछ समय पश्चात एक मित्र द्वारा आपका मो.नम्बर मिला, 20 अप्रैल 2008 को मैंने पुनः मिलने की इच्छा व्यक्त की। अनुमति मिलने के पश्चात मैं गुरु जी के कला संस्थान में प्रवेश किया और किसी अज्ञात प्रेरणा ने मेरे हाथों को इनके चरणों की तरफ बढ़ा दिये आर्शीवाद देते हुए आंखों से ही बैठने के लिए संकेत किया।
मैंने कला संस्थान में उपस्थित शिष्यों को देख बहुत चकित हुआ गुरु जी की आयु से दुगने आयु के लोग भी इनके शिष्यों की जमात में हैं और बड़ी तन्मयता के साथ कला सीख रहे थे सभी को गुरु जी बड़ी कुशलता के साथ चित्रण कार्य सिखा रहे हैं तब मुझे अहसास हुआ कि शिष्यों के प्रति गुरुदेव के मन में असीम प्यार समाया हुआ है।
गुरू जी के इस प्रभावपूर्ण व्यवहार से मेरे अंतर्मन की कला जिज्ञासा और बढ़ने लगी तथा कला की नयी कोपलें फूटने लगीं। यह सब मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे सुबह-सुबह पावन सरिता सरयू के किनारे उगते हुए सूर्य के जरिये मुझे मुक्ति का रास्ता दिख गया हो।"
कला संसार के इस महासागर में मेरा प्रवेश करना बहुत दुष्कर था लेकिन घनघोर अंधेरों में एक प्रकाश पुंज की भाति रोशनी प्रदान कर गुरुदेव ने हमें अपना रास्ता दिखाया।


तत्पश्चात मै एक शिष्य के रूप में इनके श्री चरणों में बैठकर कला के विविध सोपानों का अध्ययन कर, कलात्मकता के क्षेत्र में प्रवेश किया और अपनी तूलिकाओं से विशाल चित्र श्रृंखलाओं का सृजन कर रहा हूं जो आज समाज में परिलक्षित होती हुई देश के विभिन्न संस्थाओं, आर्ट गैलरियों तथा अनेकों प्रदेशों में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रखते हुए सम्मानित होती रही हैं जिसे मैं अपने जीवन में गुरू जी द्वारा प्रदान किये गये एक कला रूपी प्रसाद के रूप में आत्मसात करता हूँ।


महान विचारों और विशाल सुंदर मन के धनी गुरुदेव के सान्निध्य में 10 वर्षों से अधिक समयों से इनके तपोवन में रहकर मैने कला का गुर सीखा तथा आज भी इन्हीं की शरणस्थली में रहकर मैं आधुनिक कला की नवीन बारीकियों को सीख रहा हूँ। गुरुदेव के कलात्मक गुणों से तो मै प्रभावित ही हूँ, परंतु इनकी सदैव आदर्शवादी सोच, मर्यादित विचारधाराएं एवं नैतिक परख बातों से निरंतर बहुत कुछ सीखने को मिलता रहता है। इतना ही नहीं आपके द्वारा समय-समय पर सुनाई गई ऐतिहासिक एवं पौराणिक कहानियां तथा कलात्मक वार्तालापों से मै अत्यधिक प्रभावित रहा हूँ। कहने का आशय यह है कि गुरुदेव हमारे जीवन के पथ प्रदर्शक के रूप में तथा इनके सान्निध्य में रहना हमें स्वर्ग में रहने से भी बढ़कर है।
इतना विशालतम महारत हासिल करने के बाद भी गुरुदेव में तनिक भी अभिमान नहीं है तथा अपने सरल स्वभाव को परिलक्षित करके अपनी योग साधना को अपने मन की गहराईयों में समाहित कर नये धाराओं का उद्‌गार करते रहते हैं। इनकी विशालता के बारे में मैं क्या कहूं जिसके लिए मेरे शब्द छोटे पड़ जाते हैं। मुझे गर्व है कि मैं इनका शिष्य हूं।
योग,कला,साहित्य,अध्यात्म आदि में गहरी रुचि होने के कारण श्रद्धेय गुरू जी ने अपने निजी पारिवारिक सुखों का त्याग कर एक तपस्वी सन्यासी का जीवन श्री हनुमान जी के चरणों में (श्री हनुमानगढ़ी, श्री अयोध्या धाम ) व्यतीत कर रहे हैं और निरन्तर अपने शिष्यों में सतमार्गो पर चलने की अलख जगाने में पूरी निष्ठा भाव से प्रयत्नशील रहे हैं।

"गुरुदेव का अपनत्व ही मेरे जीवन का संबल है।
आपका स्नेह आशीर्वाद यूं ही सदैव बना रहे,
इसी आशा और विश्वास के साथ हृदय से कोटि-कोटि प्रणाम ।

शनिवार, 11 जनवरी 2025

राजा शिवगुलाम सिंह / Raja Shiv Gulam Singh

आजादी के महानायक राजा शिवगुलाम सिंह जी का एक संक्षिप्त परिचय ।


1857 क्रान्ति के नायक / बस्ती /उत्तर प्रदेश

        (राजा शिव गुलाम सिंह जी का चित्र) 

सन 1857 ई०वी० प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन मे अंग्रेजो के दांत खट्टे करने वाले स्वतंत्रता आंदोलन के नायक राजा दौलत सिंह के पुत्र राजा शिव गुलाम सिंह के किले के ध्वंसावशेष मात्र अब रह गये है । राजा शिवगुलाम सिंह ने अकेले ही अंग्रेजों सेना से लोहा लेते हुए उनके दांत खट्टे कर दिए थे। और उन्होंने अकेले ही सैकड़ो अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया था। लेकिन अंग्रेजों ने धोखे से उनकी हत्या कर दी। इसके बाद वह  उनका सिर काटकर ले गए, और वह सिर आज भी कोलकात्ता के म्यूजियम में रखा हुआ है। 


 बस्ती के रूधौली क्षेत्र के 70 गांव की रियासत संभालने वाले दौलत सिंह के 23 वर्षीय बड़े पुत्र शिव गुलाम सिंह में 1857 के आजादी के जंग की आग धधक उठी थी. उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से देश को आजाद कराने की ठान ली. छोटी सी उम्र में ही उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया. अपने रियासत के नवजवानों को इकठ्ठा कर सेना बनाना शुरू कर दिया. हालांकि शिव गुलाम सिंह के पास अंग्रेज की बड़ी सेना से सीधा मुकाबला करने के लिए संसाधन की कमी थी. लिहाजा उन्होंने गुरिल्ला युद्ध करने का प्लान बनाया और उसके लिए अपने सैनिकों को ट्रेनिंग भी दी. गुरिल्ला युद्ध के सहारे उन्होंने दर्जनों अंग्रेजी अफसरों को मार गिराया. जिससे वो अंग्रेजी हुकूमत के आंखो की किरकिरी बन गए.

शिव गुलाम सिंह तलवार चलाने की कला में निपुण थे. उनको दोनों हाथों से निपुणता से तलवार चलाने में महारथ हासिल थी. शिव गुलाम सिंह की शहादत स्थल बस्ती जिले के रूधौली तहसील के पैडा चौराहे पर उनकी याद में प्रतीक चिन्ह और पार्क बना हुआ है. बता दें कि शिव गुलाम सिंह के तीन और भाई थे. शिव बक्श सिंह, जीत सिंह व रंगा सिंह, जिसमें उनके तीसरे नंबर के भाई शिवबक्श सिंह की असमय मृत्यु हो गई थी. वहीं बाकी दोनों भाइयों जीत सिंह और रंगा सिंह को अंग्रेजों ने मारकर उनकी रियासत छीन ली. इसके बाद भी शिव गुलाम सिंह पीछे नहीं हटे और अंग्रेजी हुकूमत से अपनी लड़ाई जारी रखी व गुरिल्ला युद्ध के माध्यम से अंग्रेज अधिकारियों व सैनिकों को मारते रहे.


अंग्रेज चाल चलकर शिव गुलाम सिंह के कुछ करीबी और विश्वासपात्र लोगों को अपने साथ मिला लिया. उन्हीं के माध्यम से शिव गुलाम सिंह को सूचना पहुंचाई की अंग्रेजी हुकूमत के कुछ अधिकारी पैडा में आ रहे हैं, उर्दू में भेजे गए इस संदेश में चाल चली गई. जिससे शिव गुलाम सिंह की सेना भानपुर तहसील के बैड़वा पहुंच गई और शिव गुलाम सिंह अपने मात्र चार सिपाहियों के साथ पैडा पहुंचे. जहा अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में उनको शहादत मिली.

अंग्रेज शहीद शिव गुलाम सिंह को जिंदा पकड़ना चाहते थे. कारण अंग्रेजों ने पहले उनके पैर पर बीस से अधिक गोलियां मारी. फिर भी महान क्रांतकारी शहीद शिव गुलाम सिंह जमीन पर बैठकर ही दोनों हाथों से तलवार चलाते रहे. दर्जनों अंग्रेज सैनिकों का सर धड़ से अलग कर दिए. घबराकर अंग्रेजों को उनके सीने में गोली मारनी पड़ी लड़ाई में राजा के हाथी ने भी खूब कमाल दिखाया, मरने से पहले हाथी सैकड़ों अंग्रेजी सेना को अपने पैर से कुचलकर मार दिया। जब राजा शहीद हो गए, तो अंग्रेजों ने बर्बरता दिखाते हुए राजा सिर काटकर ले गए।




आजादी के महानायक राजा शिव गुलाम सिंह जी का बस्ती के चित्रकार चंद्रप्रकाश चौधरी ने सजीव चित्रण भी किया है

शहीद राजा की याद में दिवाकर विक्रम सिंह और क्षेत्र के कुछ सम्मानित लोगों ने मिलकर पूर्व माध्यमिक विधालय पर एक स्मारक का निर्माण कराया। आज भी राजा और उनकी हाथी की गाथा सुनाई जाती है। पैड़ा में भी पर्यटन विभाग की ओर से स्मारक बनाया गया। राजा के परिवार के कुछ लोग आज भी रुधौली और कनाडा में रहते है।

साभार 

शोसल मीडिया 

रविवार, 17 नवंबर 2024

लोकप्रिय चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी परिणय सूत्र में बंधे

लोकप्रिय चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी परिणय सूत्र में बंधे


बस्ती के लोकप्रिय चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी  रविवार 02 मई 2021 को आकांक्षा चौधरी के साथ परिणाम सूत्र में बंध गए हैं। विवाहोत्सव ग्राम झलहनिया जनपद बस्ती में सम्पन्न हुआ, जहां वे रस्मों - कसमों के साथ दाम्पत्य जीवन में प्रवेश कर गए। कोरोना प्रोटोकाल के कारण शादी समारोह में परिवार के लोग और कुछ निजी मित्र शामिल हुए शादी समारोह में शामिल लोगो नें नव विवाहित दंपत्ति के लिए मंगलकामनाएं की। वहीं चन्द्र प्रकाश चौधरी को वैवाहिक जीवन में प्रवेश के लिए सोशल मीडिया के जरिये बधाई व शुभकामनाएं देने वालों का तांता लगा हुआ है।
आपको बता दें कि चन्द्र प्रकाश चौधरी भारतीय कला जगत के जाने चित्रकार है अनेको बार अपनी कलादक्षता के बल राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित होकर जनपद को गौरवान्वित करते रहे है ।

रविवार, 25 अगस्त 2024

चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी ने बनाया स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित सीताराम शुक्ल का चित्र


बस्ती। आजादी की लड़ाई में बस्ती जिले के रणबांकुरों की गाथा आज भी इतिहास के पन्नों में अमर है। इसी पन्नों में शामिल स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित सीताराम शुक्ल भी एक किरदार हैं। जंग-ए-आजादी में इनकी भूमि काफी महत्वपूर्ण थी। उन्होंने इस लड़ाई में अपना सब कुछ दान कर दिया था। यही नहीं भारत छोड़ों आंदोलन में इन्हें दो वर्ष का कारावास भी हुआ, इसके साथ ही अन्य आंदोलनों में भी इन्हें जेल जाना पड़ा था ।

         
         पंडित सीताराम शुक्ल 


राष्ट्रीय स्तर पर अपनी अद्भुत कला प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले, दर्जनों बार राष्ट्रीय स्तर सम्मानित जनपद बस्ती के प्रसिद्ध युवा चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी ने  स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पंडित सीताराम शुक्ल की कागज पर बहुत ही मनमोहक छवि को उकेरा है । चन्द्र प्रकाश चौधरी को जनपद बस्ती के अनेकों गुमनाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को जनमानस में जीवंत करने श्रेय दिया जाता है । चन्द्र प्रकाश ने कहा कि बस्ती जनपद के गुमनाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का नई पीढ़ी को उनकी वीर गाथाओं से परिचय करवाने के लिए चित्र सृजन का कार्य कर रहे है, इससे पहले चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी ने जनपद बस्ती के 1857 क्रान्ति के रणबांकुरो की पेंटिंग बनाई है‌, जिनमें अमर शहीद राजा शिवगुलाम सिंह, नगर के राजा उदय प्रताप सिंह, अमोढ़ा के राजा जालिम सिंह, महारानी तलाश कुंवरि, पिरई खां की पेंटिग शामिल है, जो जनमानस मे अत्यधिक लोकप्रिय हुई है।

गुरुवार, 4 जुलाई 2024

मरकाहे चौधरी का जीवन परिचय । Markahe Chaudhary Biography

 24 दिसंबर सन 1958 बस्ती जनपद के कप्तानगंज विधानसभा के समीप स्थित ग्राम सभा महुआ मिश्र के ग्राम खजुहा में मध्यमवर्गीय किसान परिवार सद्दर चौधरी व लाली देवी के चौथी संतान के रूप में जन्मे मन्नू चौधरी (मरकाहे) के कुल 4 भाई और एक बहन है। आपकी माता श्रीमती लाली देवी करुण हृदया सुरूचि संपन्ना एवं धार्मिक महिला थी। ये अपना अधिक समय घरेलू कार्य एवं धार्मिक कार्यों में बिताती थी, मां के धार्मिक विचारों के पूर्ण झलक आप में दिखाई पड़ते हैं।


                     
                     मरकाहे चौधरी 



अस्वस्थता के चलते इनके पिता अल्पआयु में ही स्वर्ग सिधार गए थे । घर की पूरी जिम्मेदारी इनकी माताजी के कंधों पर थी । जिन्होंने अपने दायित्वों कर्तव्यो का निर्वहन करते हुए अपनी संतानों का पालन पोषण किया। पारिवारिक विषम परिस्थितियों के कारण केवल प्राथमिक स्तर तक की ही शिक्षा प्राप्त कर पाए हैं।
घर की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण 11 अप्रैल सन 1967  में अपनी मौसी के घर खिरिहवा निवास करने के लिए चले आये। और वही खेती किसानी में अपने मौसा का हाथ बटाने लगे, यहां 21 वर्षो तक रहे । समय के साथ अपने आप को बदलते हुए बैलगाड़ी चलाना सीखना शुरू कर दिये जो जसईपुर कप्तानगंज तक का सफर तय किया करते थें।

परिवार की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए 10 मार्च सन 1977 को गोरखपुर से बनारस होते हुए आप मिर्जापुर पहुंचे, जहां जेपी सीमेंट फैक्ट्री में 11 माह तक कार्यरत रहे, यहां रहते हुए धार्मिक कार्यों में भी अपनी विशेष रूचि बनाए रखें।

11 फरवरी सन 1978 को मिर्जापुर से वापस आने के बाद 21 अक्टूबर सन 1978 फैजाबाद से ट्रेन का सफर करते हुए दिल्ली पहुंचे, वहां एक गोदाम मे काम करने लगे। इनका मन यहां भी नही लगा गांव के मिट्टी की खुशबू पुनः इन्हे 18 नवम्बर सन 1978 महज 27 दिन बाद अपने ओर खीच ले आयी।

इसी दौरान आप वैवाहिक परिणय सूत्र के बंधन में बंधे लेकिन समय को शायद यह मंजूर नहीं था, कुछ दिनों उपरांत आप दोनो लोग एक दूसरे से अलग हो गए और नितांत एकांत जीवन व्यतीत कर रहे हैं । कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक किसान परिवार में एक ऐसे व्यक्ति का उदय हो रहा है जो आगे चलकर समाज सेवा की एक मिसाल बनेगा ।



 02 अगस्त सन 1985 अपनी माता की मृत्यु के पश्चात बैदोंलिया अजायब मैं अंतिम संस्कार में पहुंचे जहां वे अपने सबसे छोटे पुत्र राम दुलारे चौधरी के साथ रहा करती थी। मृत्यु भोज समाप्त होने के उपरांत आपके छोटे भाई द्वारा बैदोलिया अजायब में ही रहने के लिए आग्रह किया गया, सोच विचार के बाद आपने स्वीकार किया और घर की बागडोर अपने हाथ में ले लिये। दिन रात अथक परिश्रम करते हुए,आपके कुशल नेतृत्व में मकान बना,तथा प्राचीन परंपरा से चली आ रही कृषि पद्धति से दूर हटकर कृषि में आधुनिक कृषियंत्रों का प्रयोग करने की और अधिक जोर दिया, और सन 2000 में कृषि कार्यों के लिए एक ट्रैक्टर खरीदा, जिससे कृषि का कार्य और अधिक सुगम हुआ।

 आप एक अच्छे वक्ता एवं हास्य व्यंगकार भी हैं, अत्यंत सरल एवं सोम्य एवं धार्मिक विचार होने के कारण  देशाटन तीर्थाटन आदि में इनका विशेष लगाव रहा है ।  समय समय पर देशाटन एवं तीर्थाटन के लिए प्रवास भी करते रहे हैं, अयोध्या, विध्यांचल, काशी, देवीपाटन इनके प्रमुख दर्शन के केन्द्र रहे है । 

संपूर्ण जनमानस में लोग इन्हे "मरकाहे "नाम से जानते व पहिचानते हैं लेकिन इनका वास्तविक नाम मुन्नू चौधरी है । इन्होने अपने छोटे भाई का एक कुशल पथ प्रदर्शक के रूप में सदैव मार्गदर्शन किया, आप दोनों भाइयों को देखने से ऐसा एहसास होता है कि आप दोनो लोगो में काफी गहरी मित्रता हो, इतने घुलमिल मिलकर रहने के बावजूद भी छोटे-बड़े के संस्कार झलक जाते हैं। माता-पिता की आदर्शवादी विचारों का प्रभाव तथा कुशल प्रयासों से यह निरंतर आगे बढ़ते गए इन्होंने अभी तक अपने जीवन काल में समाज सेवा के कार्यो के लिए हार नहीं मानी है । 

आप युवाअवस्था से राजनिति मे भी विशेष से सक्रिय रहे हैं, चौधरी चरण सिंह, डॉ राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, एवं किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैट के विचारो से अत्यधिक प्रभावित रहे ।ग्राम पंचायत स्तर की राजनीति मे भी अपनी दावेदारी ठोक दी लेकिन सहयोगियो के भीतरघात करने के कारण दूसरे पायदान पर रहे। बाद में ग्राम पंचायत के सदस्य मनोनीत किए गए।  क्षेत्र की राजनीति के चाणक्य के रूप में भी जाने जाते है । कई बार इनका विवादो में भी नाम आया लेंकिन अपनी बेदाग छवि को बनाये रखने कामयाब रहे, और सिद्धांतवादी राजनीति में सक्रिय है।

इनकी भावना है कि हमारे देश की उत्तम संस्कृति एवं सभ्यता को हर एक व्यक्ति पूर्ण रूप से समझ सके, तथा उसका अनुसरण कर सके, इन्होंने अनेको धार्मिक कार्यक्रमों में सहभागिता के साथ-साथ मूर्ति सृजन के कार्यों में भी अपनी कुशलता दिखाई है । विद्यालयों पर आयोजित समारोह एवं राष्ट्रीय पर्वो में निरंतर शिरकत करते रहे हैं। गांव की हरियाली लहलहाती फसलों की खनक, पीपल की छांव माटी की महक आपके विचारों में नितांत झलकता रहता है।

 

आपकी सेवा भावना नदियों की भांति प्रवाहित होकर सदैव एक नए मार्ग प्रशस्त करती रहती है,आपकी सरसता विनम्रता सेवाभावना लोगों के मन मस्तिष्क के अंतरात्मा को स्पर्श कर शीतलता प्रदान करती है, क्षेत्र में मरकाहे चौधरी नाम आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है ।


आपका का प्रमुख उद्देश्य रहा है कि देश के युवाओं में राष्ट्रप्रेम सांप्रदायिक सद्भाव के साथ साथ समाज सेवा की भावनाओं का भी पूर्ण रूप से विकास हो, जिससे हमारा देश एक उत्तम संस्कृत को लेकर विश्व के मरुस्थल पर अनंत काल तक अपने अस्तित्व को कायम रख सके, आपने इन्हीं उद्देश्यों को पूरा करने के लिए देश व समाज के अनेको परिवारों को आश्रय एवं सहायता प्रदान कर रहे है।



आप सहज सरल और निर्भिमानी लोगों में से हैं जो धन और यश का मोह त्याग कर सच्चे मन से समाज सेवा करने हेतू निरंतर प्रयासरत हैं । 


(15/05/2023 साक्षात्कार व अभिलेखों से व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त हुई है)

चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी ने चित्र बनाकर टीम इंडिया का स्वागत किया

               (चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी)

           टी20 वर्ल्ड कप 2024 जीतकर भारत पहुंची टीम इंडिया की इस शानदार वापसी ने फैंस में जबरदस्त उत्साह भर दिया है टीम इंडिया की इस सफलता ने न केवल क्रिकेट प्रेमियों को गर्वित किया है बल्कि देशभर में क्रिकेट के प्रति नए उत्साह को भी जन्म दिया है, टी20 विश्व कप जीतकर स्वदेश लौटी भारतीय क्रिकेट टीम का जनपद बस्ती के प्रसिद्ध युवा चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी ने बहुत ही अनोखे अंदाज में भारतीय क्रिकेट टीम का स्वागत किया हैं, इन्होंने भारतीय क्रिकेटर रोहित शर्मा एवं विराट कोहली का कागज पर पेंसिल से  चित्र बनाकर  टीम का स्वागत किया है, चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी ने अपने चित्र के माध्यम से भारतीय टीम के प्रति अपनी भावनाओं का इजहार किया, और इस ऐतिहासिक पल को हमेशा के लिए यादगार बना दिया है।

सोमवार, 8 जनवरी 2024

चन्द्र प्रकाश चौधरी ने रामायण के प्रसंगो पर किया मनमोहक चित्रण

बस्ती । अयोध्या में होने जा रहे रामलाल के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम को लेकर पूरे देश में एक अलग ही तरह का माहौल है । भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर की चर्चा चारो तरफ हो रही है। कप्तानगंज विधानसभा के बैदोलिया अजायब गांव के रहने वाले किसान राम दुलारे चौधरी जी के पुत्र चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी ने रामकथा को अपने तरीके से पेश किया है, चन्द्र प्रकाश ने रामायण में हुए महत्वपूर्ण प्रसंगों को अपनी कला के जरिए रंगों की मदद से कागज पर उतारा है। 
पेंटिंग में चन्द्र प्रकाश ने रामकथा के अलग अलग दृश्यों को जल रंग तैल रंग, स्केच माध्यम से उकेरा है जिसमे श्रीराम वन गमन, मृग वध, माता सीता का हरण, जटायु वध, सुग्रीव संवाद, बालि वध,भरत हनुमान मिलाप, समुद्र पर सेतू निर्माण, लंका दहन के चित्र में हनुमान जी आकाश में उड़ते हुए नजर आ रहे हैं, कुंभकर्ण वध, रावण वध, और श्रीराम दरबार के चित्रांकन में भगवान श्रीराम जी माता सीता के साथ बैठे हुए है और लक्ष्मण व भरत,शत्रुघन बगल मे है,साथ ही हनुमान जी प्रभु के चरणो मे बैठे है । इस श्रृंखला में 15 से ज्यादा चित्र हैं जो कि अनेको चित्रकला शैलियो मे बनाये गये है ।
इनकी चित्र रचनाओं में पौराणिक कहानियो के साथ-साथ व्यक्ति चित्र, दृश्य चित्र एवं समसामयिक विषयों की प्रमुखता देखने को मिलती है । 2 अक्टूबर 2023 को गोंडा मे आयोजित कार्यक्रम में कला रत्न सम्मान से सम्मानित हुए, पटेल स्मारक संस्थान बस्ती द्वारा 31 अक्टूबर 2023 को राष्ट्रीय गौरव सम्मान सम्मानित किया गया। चन्द्र प्रकाश राष्ट्रीय स्तर भी अपनी कला तक्षता का  लोहा मनवा चुके है,और दर्जनो बार सम्मानित हुए है।

सोमवार, 24 अप्रैल 2023

चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी की बिटिया आकृति का जन्म दिन मनाया गया ।

 चित्रकार चन्द्र प्रकाश चौधरी की बिटिया आकृति का जन्म दिन 14 अप्रैल 2023 को बहुत ही धूम धाम से मनाया गया ।

(अपनी पत्नी आकांक्षा चौधरी व बिटिया आकृति के साथ) 

चित्रकार ने अपनी बिटिया का जन्मदिन अपने घर पर परिवार के साथ ही मनाया ।

           (अपनी नातिन आकृति के साथ मरकाहे चौधरी )

 (पिता राम दुलारे चौधरी व अग्रज विक्रमा जीत चौधरी) 






 जन्मदिवस के अवसर पर चित्रकार के पिता राम दुलारे चौधरी, माता मालती चौधरी, बड़े पिता मरकाहे चौधरी, भाई विक्रमा जीत चौधरी, कृष्ण कुमार चौधरी गुड्डू, पारस रामानंद चौधरी, भाभी नीलम चौधरी, संगीता चौधरी, भतीजे अखंड प्रताप चौधरी, शिवांस चौधरी, अकिता, पत्नी आकांक्षा चौधरी आदि उपस्थित रहे ।

बुधवार, 2 नवंबर 2022

रानी तलाश कुंवरि / Rani Talash Kuwari


🚩 महारानी तलाश कुंवरि 🛡🗡 🏹

अमोढ़ा के नरेश पृथा सिंह के बाद उनके बड़े पुत्र राजा अभय सिंह तथा उनके बाद उनके पुत्र राजा जंगबहादुर सिंह ने अमोढ़ा का शासन सम्भाला उनका विवाह अंगोरी राज्य (राजाबाजार, ढ़कवा)के दुर्गवंशी राजकुल की राजकुमारी तलाशकुँवरी के साथ हुआ था।उन्हें भी राजकुमारों की तरह शस्त्र चलाने की शिक्षा दी गई थी।भाला,तलवारबाजी घुड़सवारी तीरंदाज़ी आदि शस्त्र कला में रानी बचपन से ही प्रवीण थीं।

सब कुछ ठीक चल रहा था तभी सन 1853 में राजा जंगबहादुर सिंह का निःसंतान निधन हो गया, तब परिस्थिति वश रानी तलाशकुवंरि ने अमोढ़ा की राजगद्दी संभाली। सत्ता सम्भाले हुए ४ वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे, तभी १८५७ का स्वतंत्रता आंदोलन शुरू हो गया। रानी तलाशकुँवरि भी झांसी की रानी की तरह निसंतान थीं, तथा गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की कुख्यात ‘डाक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ पॉलिसी यानी की(निःसंतान राजपरिवारों का राज्य ईस्ट इंडिया कम्पनी में मिला लेना) के सीधे निशाने पर थीं। 
1857 में अवध के बाकी हिस्सों में बगावत के शोले भड़ककर बुझ गए तो भी रानी तलाशकुंवरी ने अंग्रेजों की अधीनता या पराजय स्वीकार करना गवारा नहीं किया।अंग्रेजों ने उनके शासन के दौरान कई तरह की दिक्कतें खड़ी करने की कोशिश की,पर स्वाभिमानी रानी ने हर मोरचे का मुकाबला किया। 

                   
                   (रानी तलाश कुंवरि )

रानी ने अपने प्रमुख रणनीतिकारों के साथ बैठके की और फैसला किया कि अंग्रेजों को भारत से खदेडऩे में स्थानीय क्षत्रियों,किसानों तथा पठानो इत्यादि लड़ाकों की मदद से एक बड़ी सेना का संगठन किया जाय।और अंग्रेजो का जी जान से मुक़ाबला किया जाय।

इस प्रकार क्षेत्रीय जनों की एक बड़ी सेना बनाकर रानी ने उन्हें युद्ध नीति का प्रशिक्षण स्वयं दिया,और युद्ध का बिगुल फूंक दिया गया। रानी की सेना ने बस्ती-फैजाबाद के सड़क और जल परिवहन को ठप्प करा दिया था। संचार के सारे तार टूट जाने से अंग्रेज बुरी तरह बौखला गए। रानी अंग्रेजों के आंखों की किरकिरी पहले से ही बन गयीं थी।उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई की तरह मर्दाना वेश में लड़कर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए और सैन्य व्यूह रचना में अपनी सिद्धहस्तता भी प्रमाणित किया। विपरीत परिस्थिति और सीमित संसाधन के बावजूद उन्होंने अपने साहस,शौर्य और रणकौशल की बदौलत  अंग्रेजों से १० महीने तक युद्ध किया।और उनकी सेना ने कई अंग्रेज अधिकारियों और सैनिकों को मौत के घाट उतारा।

पखेरवा के पास हुए मुकाबले में उनका प्यारा घोड़ा घायल होकर मर गया।पराजय सामने खड़ी देखकर भी उनका मनोबल कम नहीं हुआ। किंचित भी घबराए बिना उन्होंने अपने सैनिकों से कहा,’अंग्रेज मुझे हर हाल में जिंदा या मुर्दा पकड़ना चाहते हैं। मैंने भी तय कर लिया है, कि अगर इसकी नौबत आई,तो मैं अपनी ही कटार से अपनी जीवनलीला समाप्त कर लूंगी। आप लोग मेरे मरने के बाद भी जंग जारी रखना तथा मेरी लाश फिरंगियों के हाथ न पड़ने देना।

2 मार्च, 1858 को बुरी तरह घिर जाने पर रानी ने जो कहा था, कर दिखाया। अपनी ही कटार खुद को मार ली। उनके वफादार सैनिकों ने जान पर खेलकर उनकी लाश अंग्रेजों के हाथ न पड़ने देने का वादा निभाया। रानी की मौत बाद उनके शव को सहयोगियों ने छिपा लिया। बाद में शव को अमोढा राज्य की कुल देवी समय माता भवानी का चौरा के पास दफना दिए। और वहां पर मिट्टी का एक टीला बना दिया। यह जगह रानी चौरा के नाम से ही मशहूर है। पखेरवा में जहां रानी का घोड़ा मर गया था,उसे भी स्थानीय ग्रामीणों ने वहीं दफना दिया। इस जगह पर एक पीपल का पेड़ आज भी मौजूद है। यहाँ के लोगों के लिए यह जगह श्रद्धा का केन्द्र है।
 
    (महारानी तलाश कुंवरि जी के किले के ध्वंसावशेष)  


मगर पूर्वाग्रही और खिसियाए अंग्रेजों ने तोप लगाकर अमोढ़ा क़िले को,सुंदर राजभवन से खंडहर में तब्दील कर दिया उनका महल और किले के खंडहर आज भी उनके साहस,शौर्य,वीरता और शहादत की कहानी बयां करते हैं।

अंग्रेजो ने इस इलाके में भयानक नरसंहार किया अमोढ़ा का विध्वंस करने के पश्चात रानी अमोढ़ा,राजा नगर और राजा सत्तासी (गोरखपुर) की सारी संपत्ति बस्ती और बांसी राजा को अंग्रेजों के प्रति उनके वफ़ादारी के इनाम स्वरूप दे दी।
साभार 
सोसल मीडिया 

राजा जालिम सिंह / Raja Jalim Singh

1526 ई. में बाबर ने मुग़ल राज्य की स्थापना की, और उसके सेनापति मीरबाक़ी ने 1528 में अयोध्या पर आक्रमण करके रामजन्मभूमि को ध्वस्त करके उसी स्थल पर मस्जिद बनवाई।जब मंदिर तोड़ा जा रहा था तब इसका विरोध अमोढ़ा राज्य ने बहुत प्रचण्डता के साथ किया था। उस समय अमोढ़ा की गद्दी पर सूर्यवंशी कुल गौरव महाराज वीर सिंह विराजमान थे,जो इस राजकुल के २१वें शासक थे।मीर बाकी की सेना के साथ भयंकर युद्ध लड़ा गया,इस महा संग्राम में राजा नगर,राजा भीटी,राजा हंसवर, मकरही,खजूरहट दीयरा,अमेठी आदि रजवाड़ों के साथ अमोढ़ा के तत्कालीन राजा वीरसिंह मंदिर बचाने के लिए बाबर की सेना से युद्ध लड़े। कई दिनों तक युद्ध चला और हजारों वीर सैनिक शहीद हो गए। मगर बाबर की सेना जीत गई। कहते हैं कि इस युद्ध में अमोढ़ा राज्य के सभी गाँव के राजपूत परिवारों ने भाग लेकर रामजन्मभूमि रक्षार्थ अपने जीवन का बलिदान दिया था।
इतिहासकार कनिंघम अपने 'लखनऊ गजेटियर' के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है कि 1,74,000 हिन्दुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीर बाकी अपने मंदिर विद्ध्वंस अभियान में सफल हुआ।

अकबर ने जब 1580 ई. में अपने साम्राज्य को 12 सूबों में विभक्त किया, तब उसने 'अवध'का सूबा भी बनाया और अयोध्या को ही इसकी राजधानी बनाया।

1707 ई. जब औरंगजेब की मृत्यु हुई,तब सम्राट बहादुरशाह ने कुलिच खान को अवध का सूवेदार और गोरखपुर का फौजदार नियुक्त किया, 1710 ई. में उसने पद से त्यागपत्र दे दिया। उसके त्यागपत्र से स्थानीय राजाओं को अपने-अपने क्षेत्र में धाक जमाने का अवसर प्राप्त हो गया। प्रत्येक राजा व्यवहारिक रूप से अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हो गया। तथा उन्होंने मुग़लों को लगान देना बंद कर दिया। इन राज्यों की स्वतंत्र स्थिति वाइन के “सेटेलमेट रिपोटर्” में वड़ी प्रमुखता से प्रकाशित हुआ।

उक्त परिस्थिति का लाभ उठाकर तत्कालीन राजा अमोढ़ा “संग्राम सिंह” जो कि राजा वीरसिंह के बड़े पुत्र थे,उन्होने भी अपना स्वतंत्रत राज्य विस्तार आरम्भ कर दिया। ये स्थिति १० वर्षों तक चली,और फुरखसियर के बादशाहत में पुनः मुग़लों के अधीन हो गई।
अमोढ़ा राज्य के सूर्यवंशियों का स्वर्णिम काल सन 1732 से शुरू हुआ जब अमोढ़ा राजघराने की 24वीं पीढ़ी में राजा साहेब सिंह के बड़े पुत्र,सबसे निडर,सबसे पराक्रमी और साहसी राजा जालिम सिंह ने सत्ता सम्भाली।

🚩 राजा जालिम सिंह 🗡🛡🏹

 
                    (राजा जालिम सिंह )

ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि राजा जालिम सिंह का समय एक तरह से अमोढ़ा के लिए स्वर्णकाल कहा जा सकता है। उस दौरान अमोढ़ा ने जो समृद्धि हासिल की वैसा दोबारा नहीं कर सका। उस दौर में यहां कई इमारतों तथा सड़कों का निर्माण हुआ,जिनकी निशानियां आज भी मौजूद हैं। अमोढ़ा में बेहतरीन किला तथा अमोढ़ा से ४ किलोमीटर दूरी पर स्थित पखेरवा में शानदार राजमहल इन्ही के शासन काल में बना।अमोढ़ा के किले में स्थित महल के नीचे से पखेरवा तक चार किलोमीटर सुरंग भी हुआ करती थी।

मुग़लों तथा अंग्रेज़ों की संयुक्त शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया तथा सेना की सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया। अपने शासन के दौरान उन्होंने अत्यधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कार्य करते रहे।अपने इसी स्वभाव से वे अपनी प्रजा के स्नेहभाजन बन गए।उन्होंने क़िले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और सैन्य प्रशिक्षण,शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए।
राजा जालिम सिंह की बदौलत अमोढ़ा की आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित सुधार हुआ।खेती के अवकाश के दौरान यहाँ बढ़ई,लुहार,सुनार,नाई,धोबी,कुम्हार,धुनिया,जुलाहे,बुनकर,मोची,वेलदार तथा वैद्य सभी देशी कुटीर उद्योग में व्यस्त रहते थे,इनके बनाए हुए उत्पाद के लिए बाज़ार राजा स्वयं उपलब्ध कराते थे।इन उत्पादों की बड़ी माँग थी,इनके क्रय और विक्रय के माध्यम से प्राप्त धन से प्रजा आर्थिक,सम्पन्न थी। इस व्यवस्था के उपरान्त राज्य की प्रजा उन्हें मसीहा मानने लगी। राजा साहब अश्वारोहण और शस्त्र–संधान में काफी निपुण थे। उन्होंने एक विशाल सेना खड़ी की जिसका संचालन वह स्वयं करते थे। 

पड़ोसी राज्य भी राजा जालिम सिंह से बहुत प्रभावित थे।राजा साहब ने पड़ोसी राजाओं को अपने प्रभाव में लेकर उनसे मैत्रिपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया। गौतम वंशीय राजा नगर के यहाँ से मधुर वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ा। तथा बस्ती कलहँसों के कुल से भी विवाहेत्तर सम्बन्ध कायम रखते हुए उन्हें अभय प्रदान किया।श्रीनेत्र राजपरिवार से अपना मधुर सम्बन्ध स्थापित किया तथा इस कुल में अपनी बहन का विवाह सम्पन्न कराया,और उन्हें जागीर भी प्रदान किया।

महाराजा जालिम सिंह के सूझ-बुझ और सुव्यवस्थित शासन प्रणाली की वजह से अमोढ़ा राज्य उत्तरोत्तर प्रगति कर रहा था,इसी बीच सादत खान,जो अवध के दूसरे नवाब थे,और उनके शहज़ादे शुजाउद्दौला ने 1739-54 में अयोध्या को अपना सैन्य मुख्यालय बनाया,तथा फ़ैज़ाबाद में किले का निर्माण कराया इसी क़िले को अवध की राजधानी बनाई।ये वह दौर था जब अमोढ़ा अपनी बुलंदियों पर था। फ़ैज़ाबाद में सैन्य मुख्यालय और अवध की राजधानी हो जाने की वजह से अमोढ़ा विधर्मी संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका,क्योंकि नवाब उधर से अपनी तहजीब और रंग ढंग भी लेते आए थे।ये बात राजा जालिम सिंह को अंदर ही अंदर सालती रहती थी।
उधर नवाब शुजाउद्दौला ने भी पड़ोसी राज्य होने की वजह से और अमोढ़ा राज्य की सम्पन्नता,तथा राजा साहब की वीरता से प्रभावित होकर उनसे मित्रता कायम कर लिया, मगर अफ़सोस,कि मुग़लों से बहुत सीमा तक दोस्ती का अर्थ यह था कि नवाब जैसे चाहें वैसे शासन चला सकें। 
वास्तव में अमोढ़ा राज्य के स्वामी का स्थान शुजाउद्दौला लेता जा रहा था। यह बात राजा जालिम सिंह जैसा स्वाभिमानी राजा कदापि सहन नहीं कर सकता था।इसी बात को लेकर महाराज और नवाब के बीच कुछ मनमुटाव हो गया था।


       (राजा जालिम सिंह जी के किले अवशेष)

इसी बीच सन १७६१ में अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच पानीपत के मैदान में घमासान युद्ध हुआ, इस युद्ध में नवाब शुजाऊद्दौला ने समस्त पड़ोसी हिंदू राजाओं के विचार से अलग जाकर अब्दाली का साथ दिया, नवाब तथा अब्दाली की संयुक्त सेना से मराठों की सेना को बुरी तरह पराजित हुई।इस ख़ुशी में फ़ैज़ाबाद गुलाबवाड़ी में नवाब द्वारा नृत्य-संगीत के रंगारंग प्रोग्राम का आयोजन किया गया,जिसमें उस क्षेत्र के तमाम रजवाड़े आमंत्रित थे,राजा जालिम सिंह जी उस आयोजन में विशिष्ट मेहमान के तौर पर आमंत्रित थे, प्रोग्राम के मध्य में कुछ बातें राजा जालिम सिंह को नागवार गुजरीं, जिससे नवाब और राजाजी के बीच कहासुनी हो गई, नवाब ने अपने सैनिको से महाराज को बन्दी बनाने का आदेश दे दिया,मुग़ल सैनिक राजासाहब को गिरफ़्तार करने आगे बढ़े,तब तक बहुत देर हो चुकी थी, बिजली की चमक बिखेरती राजा जालिम सिंह की तलवार म्यान से बाहर निकल चुकी थी।उनकी तलवार के बेग के सामने नवाब का कोई सैनिक टिक नहीं सका,सभी मुग़ल सैनिकों को छठी का दूध याद दिलाते हुए राजा जालिम सिंह नवाब की घेराबंदी को तिनके की तरह बिखेर कर,घोड़े के साथ सरयू नदी के तट पर पहुँचे।उस समय दोनो पाटों पर बहती नदी को रात्रि में तैर कर पार किया।इस घटना के बाद से पैदा हुआ मन मुटाव सन १७६४ के बक्शर युद्ध में समाप्त हुआ,जब राजा जालिम सिंह के द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध सुजाउद्दौला का साथ दिया गया।

दरअसल ईस्टइंडिया कंपनी के रूप में अंग्रेज़ों ने बहुत समय से अवध की दौलत पर आँखें गड़ा रखी थी।अंग्रेजों की दृष्ठि से सबसे अधिक दर्दनाक था शुजाउद्दौला द्वारा बंगाल पर आक्रमण,जिसके बाद उन्होंने कुछ समय तक कलकत्ता पर शासन भी किया था। 
लेकिन १७५७ में प्लासी तथा १७६४ में बक्सर की लड़ाई में अंग्रेज़ों की जीत के बाद नवाब पूरी तरह मटियामेट हो गए। युद्ध समाप्त होने के बाद अवध ने अपनी काफ़ी ज़मीन खो दी थी।फिर भी सतही तौर पर ही सही,हमेशा के जानी दुश्मन नवाब शुजाऊद्दौला अंग्रेजों के दोस्त बन गए और ब्रिटिश संसद में,तथा संपूर्ण भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रमुख मित्र के तौर पर नवाब के तारीफ़ के पुल बाँधे गए।

बक्शर युद्ध के बाद नवाब थोड़ा थोड़ा करके अपनी आज़ादी खोते गए। पहले चुनार का किला और फिर बनारस और ग़ाज़ीपुर के जिले और फिर इलाहाबाद का किला अंग्रेजों को दे दिया।
9 सितम्बर 1772 में सआदत खान को अवध सूबे का राज्यपाल नियुक्त किया गया जिसमे गोरखपुर का फौजदारी भी था। इसके ठीक एक वर्ष बाद सन १७७३ में नवाब ने लखनऊ में ब्रिटिश रेज़िडेंट पद स्वीकार करने का आत्मघाती कदम उठाया,इसकी बदौलत विदेश नीति पर सारा नियंत्रण ईस्ट इंडिया कम्पनी का हो गया तथा अवध का वास्तविक शासक रेज़िडेंट ही हो गया।

कहते हैं राजा अमोढ़ा और काशी नरेश के बीच बहुत अच्छे सम्बन्ध थे।,तत्कालीन काशी नरेश राजा चेत सिंह और जनरल वारेन हेस्टिंग्स में ठन गयी।जनरल ने राजा पर अंधाधुंध टैक्स लाद दिया। दरअसल अमोढ़ा के साथ काशी भी सन् 1775 तक अवध राज्य के अधीन था लेकिन नवाब शुजाउद्दौला की मृत्य के बाद काशी नरेश तथा उनके साथ कई राजाओं ने स्वयं को अवध की सत्ता से अलग कर लिया। उन राजाओं में अमोढ़ा राजा जालिम सिंह भी थे। काशी नरेश चेतसिंह,अमोढ़ा नरेश राजा जालिम सिंह तथा अन्य कई राजाओं से वारेन हैसटिंग्स ने संधि कर इन सभी राज्यों को कंपनी के अधीनता में ले लिया।और इन राज्यों से कम्पनी ने स्वयं लगान लेना शुरू कर दिया।
सन् 1780 आते-आते हेस्टिंग्स ने काशी नरेश पर 50 लाख रुपए जुर्माना थोप दिया।इस जुर्माने को वसूलने जुलाई 1780 में वारेन हेस्टिंग्स बनारस आ धमका।वर्तमान काशी राज परिवार जो राजा चेत सिंह का मंत्री हुआ करता था,उसकी ग़द्दारी से अंग्रेजों ने चेतसिंह को बंदी बना लिया,और राजा चेत सिंह को काशी राज्य छोड़कर पलायन करना पड़ा।
इस घटना और अपने मित्र राजा चेत सिंह के अपमान से तथा अंग्रेजों की बर्बरता से क्रोधित महाराजा जालिम सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया,और स्वतंत्रता संग्राम में मजबूत संकल्प के साथ कूद पड़े।राजा साहब से श्रीनेत राजा सत्तासी,गौतम राजा नगर और राजा बहराइच भी बहुत प्रभावित थे और अपने अपने राज्यों में उन्होंने भी अंग्रेजों को नाकों चने चबवाना शुरू कर दिया।

अमोढ़ा राज्य के भीषण विरोध के बाद वारेंन हेस्टिंग्स के कान खड़े हो गए थे।वह अपनी सेना अमोढ़ा की तरफ़ कूच करने ही वाला था,मगर उस समय पश्चिम में मराठाओं से और दक्षिण में टीपू सुल्तान के साथ भीषण युद्ध में व्यस्त होने के कारण वह अपनी सेना अमोढ़ा की तरफ नहीं भेज सका।
तभी ब्रिटिश संसद ने पिट्स इंडिया एक्ट पारित  कर दिया ,जिसमें स्पष्ट कर दिया गया था कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी देशी रियासतों के प्रति अहस्तक्षेप का रास्ता अपनाए। यह 1784 का दौर था।इस क़ानून के बाद सन 1785 में वारेन हेस्टिंग्स ब्रिटेन वापस बुला लिया गया।
इस मौक़े का लाभ उठाकर राजा जालिम सिंह ने अपना छापामार युद्ध जारी रखा,और समय समय पर घात लगाकर अंग्रेजों को छकाते रहे।उनके छापामार युद्ध से अंग्रेज अफ़सर और सिपाही इतना घबराए हुए थे,कि उन्होंने अमोढ़ा राज्य की तरफ़ देखना ही छोड़ दिया था। 

अंग्रेजों की विशाल सैन्य शक्ति के सामने उनकी सेना बहुत छोटी थी तथा संसाधन भी बहुत सीमित थे। इसकी परवाह किए बिना उन्होंने अमोढ़ा राज्य के प्रत्येक क्षत्रिय परिवारों के एक सदस्य को अपनी सेना में भर्ती होने का आह्वान किया और उन्हें युद्ध कला का अभ्यास कराया।उन्होंने अपनी सेना में पठानो को भी भर्ती किया और अपनी सेना की अग्रिम पंक्ति में जगह दिया,यह उनके व्यक्तित्व का ही कमाल था कि क्षत्रिय सैनिकों की तरह पठान सैनिक भी उनके लिए सदैव जान देने को तैयार रहते थे।

१७८३ तक उन्होंने आसपास के क्षत्रिय और पठानो तथा सन्यासी आंदोलन के घुमक्कडो जिसमें मदारी और बरहना जाती के लोग थे अपने साथ मिलाकर 11000/ सैनिकों की सेना तैयार कर ली थी। उनके रुतबे का जनसाधारण पर बड़ा असर था,अंग्रेज इसी लिए परेशान रहते थे।अंग्रेज़ों की विशाल सैन्य शक्ति के सामने उन्होंने गुरिल्ला युद्ध अपनाया।छिट-पुट संघर्ष में अंग्रेज कई बार परास्त हुए।इस तरह राजा जालिम सिंह १७८५ तक अंग्रेजो से लगातार लड़ते रहे।

फिर वह मनहूस दौर भी आया,अमोढ़ा राज्य द्वारा मुग़लों की अधीनता अस्वीकार कर देने की वजह से मृतक नवाब शिराजुद्दौला का शहज़ादा आसिफुद्दौला राजा जालिम सिंह से खार खाए बैठा था।उसने मेजर क्राऊफ़ोर्ड को 15 जनवरी 1786 को एक पत्र लिखकर राजा अमोढ़ा,राजा सत्तासी,(गोरखपुर) राजा बहराइच को सबक़ सिखाने के लिए एक बड़े सैनिक रेजिमेंट को जल्द से जल्द अमोढ़ा भेजने की माँग की।

मेजर क्राऊफ़ोर्ड ने आसिफ़ुद्दौला के कहने पर एक बड़ा सैनिक रेजिमेंट राजा जालिम सिंह को ज़िंदा पकड़ने के लिए अमोढ़ा की तरफ भेज दिया,मगर राजा साहब छापामार युद्ध प्रणाली तथा भेष बदलने में इतने माहिर थे कि उनको पकड़ना तो दूर पहचान पाना बहुत मुश्किल था।मगर कहावत है कि कभी कभी मनुष्य के सदगुण भी घातक हो जाते हैं ऐसा ही एक अदभुत क्षत्रियोचित रजोगुण राजा साहब के अंदर था,वह कभी भी किसी भी परिस्थिति में सिर नहीं झुकाते थे।

आसिफ़ुद्दौला ने राजा जालिम सिंह के इसी गुण की वजह से उनको पहचान कर पकड़ने का जाल बिछवाया।
इधर राजा जालिम सिंह को आभास हो चला था कि इस बार लड़ाई आर या पार की होने वाली है अतः उन्होंने अपने बड़े पुत्र पृथापति सिंह को अमोढ़ा का युवराज घोषित कर दिया।और स्वयं केशरिया बाना धारण करके पूरी ताक़त के साथ अंग्रेजों और नवाब आसिफ़ुद्दौला के खिलाफ रणभेरी बजा दिया।

वीर और स्वाभिमानी क्षत्रिय कभी धोखेबाज़ या षड्यन्त्रकारी नहीं होता वह बाहर से कठोर मगर अंदर से निश्छल एवं कोमल होता है। आसिफ़ुद्दौला का एक संदेशवाहक पड़ोसी धर्म का उदाहरण देकर राजा साहब को यह समझाने में कामयाब रहा,कि नवाब सारे गिले शिकवे भुलाकर फिर से एक अच्छे पड़ोसी की भाँति एकजुट होकर रहना चाहता है। निर्मल हृदय राजा ने बदले में यह संदेश भेजा कि यदि  अंग्रेजो को देश से बाहर निकालने के लिए नवाब आसिफ़ुद्दौला हमारा साथ दें,और एक गठबंधन बनाएँ,तो हम सभी हिंदू राजा उनके ध्वज तले एकजुट होकर अंग्रेजों से लड़ने को तैयार हैं।

परस्पर वार्ता और मुद्दों की सहमती के लिए गुलाबवाड़ी में मिलना तय हुआ,राजासाहब के स्वागतार्थ गुलाबवाड़ी दुल्हन की तरह सजी थी,मुख्यद्वार को पार करके जब सभागार में पहुँचे तो उन्होंने देखा कि प्रवेशद्वार पर बंदनवार बहुत नीचे तक लटक रही थी,इतनी कम ऊँचाई से ७फ़ुटा जवान बिना सिर झुकाए प्रवेश नहीं कर सकता था। किसी के सामने कभी सर ना झुकाने वाले राजा साहब ने अपनी तलवार से उस बंदनवार को काट दिया।इससे पहले कि वह सभागार की तरफ बढ़ते वहाँ स्वागत और सुरक्षा हेतु खड़े करिंदो के हाथों में तलवार,भाले खुखरी,फरसे और बंदूक़ें चमकने लगी थीं।
 धोखे का अहसास होते ही उस स्वतंत्रता प्रेमी महावीर के शरीर में जैसी बिजली कौंधी हो,बड़े वेग के साथ धोखेबाज़ों के सैन्य दल को गाजर,मूली की तरह काटते हुए,राजा जालिम सिंह अपने ११ विस्वस्त सैनिकों के साथ बाहर की तरफ बढ़े।उन रनबाँकुरों के अदम्य शौर्य के सामने नवाब की 500 सैनिकों की टुकड़ी बहुत छोटी लग रही थी। 

राजा जालिम सिंह विश्वासघाती दुश्मनों का मजबूत घेरा तोड़ने में कामयाब रहे,मगर इस खूनी संघर्ष में उनके ११ विस्वस्त साथी वीरगति को प्राप्त हो चुके थे,और वह स्वयं बुरी तरह से घायल थे।सरयू तट पर पहुँच कर उन्होंने देखा कि अंग्रेजो की एक बड़ी सैन्य टुकड़ी पूरब दिशा में उनको पकड़ने के लिए घेरा डाले तैयार थी।
 एक पल रुककर राजा साहब ने कुछ सोचा,फिर बड़े बेग से अपने घोड़े को नदी को घेरकर खड़े अंग्रेज़ी सैन्य टुकड़ी के बीच की तरफ दौड़ा दिया,अंग्रेजों ने इस तरह के दुस्साहस की कल्पना भी नहीं की थी। इससे पहले की अंग्रेज़ी सेना संभल पाती वह नदी के पास तक पहुँच गए।मगर तब तक पहले से ज़ख़्मी शरीर में अंग्रेजों की कई गोलियाँ घुस चुकी थीं,इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और बड़ी मज़बूती से घोड़े के पीठ पर बैठकर अपनी तलवार से दुश्मनों का सिर उनके धड़ से अलग करते हुए वह उफनती नदी में कूद पड़े।

वह मनहूस दिन सन १७८६ के श्रावण मास की नागपंचमी का था,उनको पकड़ने के लिए सैनिकों की एक टुकड़ी सरयू नदी के उफनते पानी में उतारी गयी,मगर कोई भी सैनिक उस “सरयू पुत्र” स्वतंत्रता के दीवाने महाराजा जालिम सिंह को पकड़ना तो दूर उनका पता भी नहीं लगा सकी,कि वह किस तरफ गए।हताश अंग्रेज उन्हें दोबारा पकड़ने की,कभी ना पूरी होनेवाली ख्वाहिश लिए लौट गए।

अमोढ़ा राज्य की चमक फीकी पड़ चुकी थी,मगर सूर्यपताका अभी भी लहरा रही थी, राजा पृथा सिंह महाराज जालिम सिंह के वापस आने की सुखद आश लिए अमोढ़ा को फिर से संवारने का प्रयास कर रहे थे, उन्हें लॉर्ड कॉर्नवालिस से (१७८६ से १७९८) भारतीय रियासतों को अहस्तक्षेप नीति के तहत सिर्फ कर देकर शासन करने की आज़ादी मिली थी l
साभार 
सोसल मीडिया 

प्रतिभा सम्मान समारोह में मेधावी बच्चों को किया गया सम्मानित

आर.डी.पी.पी. इण्टर काजेज पाठक नगर बैदोलिया अजायब, बस्ती में गणतन्त्र दिवस के अवसर पर प्रतिभा सम्मान समारोह का आयोजन किया गया।  समारोह में विगत वर्ष की मैट्रिक की परीक्षा में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले तीन छात्र –छात्राओं को सम्मानित किया गया ।
मुख्य अतिथि समाज सेवी विजय नाथ दूबे द्वारा  प्रथम स्थान पाने वाली छात्रा अंकिता चौधरी,द्वितीय स्थान पाने वाली श्रध्दा एवं तृतीय स्थान पाने वाले छात्र सोनू चौधरी को ट्राफी व मेडल को प्रदान कर सम्मानित किया गया । इस अवसर पर प्रधानाचार्य विक्रमा जीत चौधरी, प्रदीप कुमार, गूड्डू चौधरी, सुनील चौधरी, राम लखन मौर्य, राम केवल चौधरी, राम दुलारे चौधरी, राज बहादुर चौधरी, अनिल पाठक, रंगी लाल गौड़, प्रवीणा सिंह, कामिनी मौर्य, मौजूद रहे ।

राजा उदय प्रताप सिंह / Raja Uday Pratap Narayan Bhadur Singh

राजा उदय प्रताप नारायण बहादुर सिंह एक सक्षिप्त परिचय


देश की आजादी के लिए 1857 में बगावत का बिगुल बजाने वाले राजा नगर उदय प्रताप सिंह ने जीते जी अंग्रेजों से हार नहीं मानी। मुखबिरों के धोखे से गिरफ्तार हुए राजा उदय प्रताप ने गोरखपुर की जेल में संतरी के बैनेट को गले में भोंग कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली थी। 


 (राजा उदय प्रताप नारायण बहादुर सिंह का चित्र )

दिल्ली के बादशाह ने 1857 में अग्रेंजों के खिलाफ लड़ाई का आह्वान किया तो राजा उदय प्रताप सिंह भी इस जंग में कूद पड़े। अपने बहनोई अमोढ़ा नरेश राजा जालिम सिंह सलाह-मशविरा किया। उनकी सहमति मिलने पर उदय प्रताप सिंह ने अंग्रेज सैनिकों के जल मार्ग को बाधित करने का निर्णय लिया। अपने राज से होकर गुजर रही सरयू नदी के तट पर अपने सैनिकों को तैनात कर दिया। 

फैजाबाद की तरफ से गोरखपुर की तरफ जा रहे अंग्रेज सैनिकों की नाव पर धावा बोल कर उनके अधिकारियों की हत्या कर दी। किसी तरह एक अंग्रेज सैनिक अपनी जान बचाकर गोरखपुर पहुंचा। उसके बाद गोरखपुर से अंग्रेज सेना नगर बाजार राज पर हमला करने के लिए कूच कर गई। 

👉 घुसुरिया में लगा था अंग्रेजों का बेड़ा 

अंग्रेजी सेना ने राजा नगर के किले से एक किमी दूर घुसुरिया गांव के पास अपनो बेड़ा लगाया। सितम्बर 1857 में हुई लड़ाई के दौरान अंग्रेजों ने गोला-बारूद के साथ तोपों का प्रयोग किया। राजा नगर की सेना बारूद व तोपों के आगे नहीं टिकी। 

👉गर्भवती पत्नी के साथ हो गए थे भूमिगत

अंग्रेजी सेना से घिरता देख राजा उदय प्रताप सिंह अपनी गर्भवती पत्नी के साथ भूमिगत हो गए। राजा की छावनी मजगवा में थी। नगर बाजार से मजगवां तक सुरंग थी, जिसके सहारे वह निकल गए। अंग्रेजी सेना ने किले पर हमला कर ध्वस्त कर दिया, जिसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। अंग्रेजों ने उनकी रियासत को जब्त कर लिया और दो हिस्से में बांट दिया। गर्भवती रानी को एक शुभचिंतक के यहां शरण दिला दिया। 

आजादी के महानायक राजा उदय प्रताप नारायण बहादुर सिंह जी का बस्ती के चित्रकार चंद्रप्रकाश चौधरी ने जलरंग माध्यम से सजीव चित्रण किया है

👉 बहराइच के जंगलों में बिताया समय

अंग्रेजों के आगे आत्मसमपर्ण करने की बजाए उदय प्रताप सिंह ने बहराइच के जंगलों में शरण लिया। काफी प्रयास के बाद भी अंग्रेज अधिकारी उन्हें पकड़ नहीं पाए। उसके बाद फूट डालो राज करो की नीति अपनाते हुए अंग्रेज अधिकारियों ने राजा नगर के विश्वासपात्रों को फोड़ लिया। उनकी निशानदेही पर अंग्रेजों ने धोखे से सिकरी नामक स्थान पर गिरफ्तार कर लिया। 

👉 गोरखपुर की जेल में किए गए बंद

गिरफ्तार राजा नगर को गोरखपुर की जेल पहुंचाया गया। उन पर केस चला कर अंग्रेज अधिकारियों के हत्या के जुर्म में फांसी की सजा दी गई। अंग्रेजों के हाथ मौत मिले, यह उन्हें गवारा नहीं था। फांसी के एक दिन पहले बैरक के बाहर तैनात संतरी से पानी मांगा। इसी बहाने उसकी राइफल को छीन उसमें लगी कटार को अपने गले में भोंक कर जीवनलीला समाप्त कर ली।