1526 ई. में बाबर ने मुग़ल राज्य की स्थापना की, और उसके सेनापति मीरबाक़ी ने 1528 में अयोध्या पर आक्रमण करके रामजन्मभूमि को ध्वस्त करके उसी स्थल पर मस्जिद बनवाई।जब मंदिर तोड़ा जा रहा था तब इसका विरोध अमोढ़ा राज्य ने बहुत प्रचण्डता के साथ किया था। उस समय अमोढ़ा की गद्दी पर सूर्यवंशी कुल गौरव महाराज वीर सिंह विराजमान थे,जो इस राजकुल के २१वें शासक थे।मीर बाकी की सेना के साथ भयंकर युद्ध लड़ा गया,इस महा संग्राम में राजा नगर,राजा भीटी,राजा हंसवर, मकरही,खजूरहट दीयरा,अमेठी आदि रजवाड़ों के साथ अमोढ़ा के तत्कालीन राजा वीरसिंह मंदिर बचाने के लिए बाबर की सेना से युद्ध लड़े। कई दिनों तक युद्ध चला और हजारों वीर सैनिक शहीद हो गए। मगर बाबर की सेना जीत गई। कहते हैं कि इस युद्ध में अमोढ़ा राज्य के सभी गाँव के राजपूत परिवारों ने भाग लेकर रामजन्मभूमि रक्षार्थ अपने जीवन का बलिदान दिया था।
इतिहासकार कनिंघम अपने 'लखनऊ गजेटियर' के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है कि 1,74,000 हिन्दुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीर बाकी अपने मंदिर विद्ध्वंस अभियान में सफल हुआ।
अकबर ने जब 1580 ई. में अपने साम्राज्य को 12 सूबों में विभक्त किया, तब उसने 'अवध'का सूबा भी बनाया और अयोध्या को ही इसकी राजधानी बनाया।
1707 ई. जब औरंगजेब की मृत्यु हुई,तब सम्राट बहादुरशाह ने कुलिच खान को अवध का सूवेदार और गोरखपुर का फौजदार नियुक्त किया, 1710 ई. में उसने पद से त्यागपत्र दे दिया। उसके त्यागपत्र से स्थानीय राजाओं को अपने-अपने क्षेत्र में धाक जमाने का अवसर प्राप्त हो गया। प्रत्येक राजा व्यवहारिक रूप से अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हो गया। तथा उन्होंने मुग़लों को लगान देना बंद कर दिया। इन राज्यों की स्वतंत्र स्थिति वाइन के “सेटेलमेट रिपोटर्” में वड़ी प्रमुखता से प्रकाशित हुआ।
उक्त परिस्थिति का लाभ उठाकर तत्कालीन राजा अमोढ़ा “संग्राम सिंह” जो कि राजा वीरसिंह के बड़े पुत्र थे,उन्होने भी अपना स्वतंत्रत राज्य विस्तार आरम्भ कर दिया। ये स्थिति १० वर्षों तक चली,और फुरखसियर के बादशाहत में पुनः मुग़लों के अधीन हो गई।
अमोढ़ा राज्य के सूर्यवंशियों का स्वर्णिम काल सन 1732 से शुरू हुआ जब अमोढ़ा राजघराने की 24वीं पीढ़ी में राजा साहेब सिंह के बड़े पुत्र,सबसे निडर,सबसे पराक्रमी और साहसी राजा जालिम सिंह ने सत्ता सम्भाली।
🚩 राजा जालिम सिंह 🗡🛡🏹
(राजा जालिम सिंह )
ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि राजा जालिम सिंह का समय एक तरह से अमोढ़ा के लिए स्वर्णकाल कहा जा सकता है। उस दौरान अमोढ़ा ने जो समृद्धि हासिल की वैसा दोबारा नहीं कर सका। उस दौर में यहां कई इमारतों तथा सड़कों का निर्माण हुआ,जिनकी निशानियां आज भी मौजूद हैं। अमोढ़ा में बेहतरीन किला तथा अमोढ़ा से ४ किलोमीटर दूरी पर स्थित पखेरवा में शानदार राजमहल इन्ही के शासन काल में बना।अमोढ़ा के किले में स्थित महल के नीचे से पखेरवा तक चार किलोमीटर सुरंग भी हुआ करती थी।
मुग़लों तथा अंग्रेज़ों की संयुक्त शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया तथा सेना की सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया। अपने शासन के दौरान उन्होंने अत्यधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कार्य करते रहे।अपने इसी स्वभाव से वे अपनी प्रजा के स्नेहभाजन बन गए।उन्होंने क़िले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और सैन्य प्रशिक्षण,शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए।
राजा जालिम सिंह की बदौलत अमोढ़ा की आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित सुधार हुआ।खेती के अवकाश के दौरान यहाँ बढ़ई,लुहार,सुनार,नाई,धोबी,कुम्हार,धुनिया,जुलाहे,बुनकर,मोची,वेलदार तथा वैद्य सभी देशी कुटीर उद्योग में व्यस्त रहते थे,इनके बनाए हुए उत्पाद के लिए बाज़ार राजा स्वयं उपलब्ध कराते थे।इन उत्पादों की बड़ी माँग थी,इनके क्रय और विक्रय के माध्यम से प्राप्त धन से प्रजा आर्थिक,सम्पन्न थी। इस व्यवस्था के उपरान्त राज्य की प्रजा उन्हें मसीहा मानने लगी। राजा साहब अश्वारोहण और शस्त्र–संधान में काफी निपुण थे। उन्होंने एक विशाल सेना खड़ी की जिसका संचालन वह स्वयं करते थे।
पड़ोसी राज्य भी राजा जालिम सिंह से बहुत प्रभावित थे।राजा साहब ने पड़ोसी राजाओं को अपने प्रभाव में लेकर उनसे मैत्रिपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया। गौतम वंशीय राजा नगर के यहाँ से मधुर वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ा। तथा बस्ती कलहँसों के कुल से भी विवाहेत्तर सम्बन्ध कायम रखते हुए उन्हें अभय प्रदान किया।श्रीनेत्र राजपरिवार से अपना मधुर सम्बन्ध स्थापित किया तथा इस कुल में अपनी बहन का विवाह सम्पन्न कराया,और उन्हें जागीर भी प्रदान किया।
महाराजा जालिम सिंह के सूझ-बुझ और सुव्यवस्थित शासन प्रणाली की वजह से अमोढ़ा राज्य उत्तरोत्तर प्रगति कर रहा था,इसी बीच सादत खान,जो अवध के दूसरे नवाब थे,और उनके शहज़ादे शुजाउद्दौला ने 1739-54 में अयोध्या को अपना सैन्य मुख्यालय बनाया,तथा फ़ैज़ाबाद में किले का निर्माण कराया इसी क़िले को अवध की राजधानी बनाई।ये वह दौर था जब अमोढ़ा अपनी बुलंदियों पर था। फ़ैज़ाबाद में सैन्य मुख्यालय और अवध की राजधानी हो जाने की वजह से अमोढ़ा विधर्मी संस्कृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका,क्योंकि नवाब उधर से अपनी तहजीब और रंग ढंग भी लेते आए थे।ये बात राजा जालिम सिंह को अंदर ही अंदर सालती रहती थी।
उधर नवाब शुजाउद्दौला ने भी पड़ोसी राज्य होने की वजह से और अमोढ़ा राज्य की सम्पन्नता,तथा राजा साहब की वीरता से प्रभावित होकर उनसे मित्रता कायम कर लिया, मगर अफ़सोस,कि मुग़लों से बहुत सीमा तक दोस्ती का अर्थ यह था कि नवाब जैसे चाहें वैसे शासन चला सकें।
वास्तव में अमोढ़ा राज्य के स्वामी का स्थान शुजाउद्दौला लेता जा रहा था। यह बात राजा जालिम सिंह जैसा स्वाभिमानी राजा कदापि सहन नहीं कर सकता था।इसी बात को लेकर महाराज और नवाब के बीच कुछ मनमुटाव हो गया था।
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राजा जालिम सिंह जी के किले अवशेष)
इसी बीच सन १७६१ में अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच पानीपत के मैदान में घमासान युद्ध हुआ, इस युद्ध में नवाब शुजाऊद्दौला ने समस्त पड़ोसी हिंदू राजाओं के विचार से अलग जाकर अब्दाली का साथ दिया, नवाब तथा अब्दाली की संयुक्त सेना से मराठों की सेना को बुरी तरह पराजित हुई।इस ख़ुशी में फ़ैज़ाबाद गुलाबवाड़ी में नवाब द्वारा नृत्य-संगीत के रंगारंग प्रोग्राम का आयोजन किया गया,जिसमें उस क्षेत्र के तमाम रजवाड़े आमंत्रित थे,राजा जालिम सिंह जी उस आयोजन में विशिष्ट मेहमान के तौर पर आमंत्रित थे, प्रोग्राम के मध्य में कुछ बातें राजा जालिम सिंह को नागवार गुजरीं, जिससे नवाब और राजाजी के बीच कहासुनी हो गई, नवाब ने अपने सैनिको से महाराज को बन्दी बनाने का आदेश दे दिया,मुग़ल सैनिक राजासाहब को गिरफ़्तार करने आगे बढ़े,तब तक बहुत देर हो चुकी थी, बिजली की चमक बिखेरती राजा जालिम सिंह की तलवार म्यान से बाहर निकल चुकी थी।उनकी तलवार के बेग के सामने नवाब का कोई सैनिक टिक नहीं सका,सभी मुग़ल सैनिकों को छठी का दूध याद दिलाते हुए राजा जालिम सिंह नवाब की घेराबंदी को तिनके की तरह बिखेर कर,घोड़े के साथ सरयू नदी के तट पर पहुँचे।उस समय दोनो पाटों पर बहती नदी को रात्रि में तैर कर पार किया।इस घटना के बाद से पैदा हुआ मन मुटाव सन १७६४ के बक्शर युद्ध में समाप्त हुआ,जब राजा जालिम सिंह के द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध सुजाउद्दौला का साथ दिया गया।
दरअसल ईस्टइंडिया कंपनी के रूप में अंग्रेज़ों ने बहुत समय से अवध की दौलत पर आँखें गड़ा रखी थी।अंग्रेजों की दृष्ठि से सबसे अधिक दर्दनाक था शुजाउद्दौला द्वारा बंगाल पर आक्रमण,जिसके बाद उन्होंने कुछ समय तक कलकत्ता पर शासन भी किया था।
लेकिन १७५७ में प्लासी तथा १७६४ में बक्सर की लड़ाई में अंग्रेज़ों की जीत के बाद नवाब पूरी तरह मटियामेट हो गए। युद्ध समाप्त होने के बाद अवध ने अपनी काफ़ी ज़मीन खो दी थी।फिर भी सतही तौर पर ही सही,हमेशा के जानी दुश्मन नवाब शुजाऊद्दौला अंग्रेजों के दोस्त बन गए और ब्रिटिश संसद में,तथा संपूर्ण भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रमुख मित्र के तौर पर नवाब के तारीफ़ के पुल बाँधे गए।
बक्शर युद्ध के बाद नवाब थोड़ा थोड़ा करके अपनी आज़ादी खोते गए। पहले चुनार का किला और फिर बनारस और ग़ाज़ीपुर के जिले और फिर इलाहाबाद का किला अंग्रेजों को दे दिया।
9 सितम्बर 1772 में सआदत खान को अवध सूबे का राज्यपाल नियुक्त किया गया जिसमे गोरखपुर का फौजदारी भी था। इसके ठीक एक वर्ष बाद सन १७७३ में नवाब ने लखनऊ में ब्रिटिश रेज़िडेंट पद स्वीकार करने का आत्मघाती कदम उठाया,इसकी बदौलत विदेश नीति पर सारा नियंत्रण ईस्ट इंडिया कम्पनी का हो गया तथा अवध का वास्तविक शासक रेज़िडेंट ही हो गया।
कहते हैं राजा अमोढ़ा और काशी नरेश के बीच बहुत अच्छे सम्बन्ध थे।,तत्कालीन काशी नरेश राजा चेत सिंह और जनरल वारेन हेस्टिंग्स में ठन गयी।जनरल ने राजा पर अंधाधुंध टैक्स लाद दिया। दरअसल अमोढ़ा के साथ काशी भी सन् 1775 तक अवध राज्य के अधीन था लेकिन नवाब शुजाउद्दौला की मृत्य के बाद काशी नरेश तथा उनके साथ कई राजाओं ने स्वयं को अवध की सत्ता से अलग कर लिया। उन राजाओं में अमोढ़ा राजा जालिम सिंह भी थे। काशी नरेश चेतसिंह,अमोढ़ा नरेश राजा जालिम सिंह तथा अन्य कई राजाओं से वारेन हैसटिंग्स ने संधि कर इन सभी राज्यों को कंपनी के अधीनता में ले लिया।और इन राज्यों से कम्पनी ने स्वयं लगान लेना शुरू कर दिया।
सन् 1780 आते-आते हेस्टिंग्स ने काशी नरेश पर 50 लाख रुपए जुर्माना थोप दिया।इस जुर्माने को वसूलने जुलाई 1780 में वारेन हेस्टिंग्स बनारस आ धमका।वर्तमान काशी राज परिवार जो राजा चेत सिंह का मंत्री हुआ करता था,उसकी ग़द्दारी से अंग्रेजों ने चेतसिंह को बंदी बना लिया,और राजा चेत सिंह को काशी राज्य छोड़कर पलायन करना पड़ा।
इस घटना और अपने मित्र राजा चेत सिंह के अपमान से तथा अंग्रेजों की बर्बरता से क्रोधित महाराजा जालिम सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया,और स्वतंत्रता संग्राम में मजबूत संकल्प के साथ कूद पड़े।राजा साहब से श्रीनेत राजा सत्तासी,गौतम राजा नगर और राजा बहराइच भी बहुत प्रभावित थे और अपने अपने राज्यों में उन्होंने भी अंग्रेजों को नाकों चने चबवाना शुरू कर दिया।
अमोढ़ा राज्य के भीषण विरोध के बाद वारेंन हेस्टिंग्स के कान खड़े हो गए थे।वह अपनी सेना अमोढ़ा की तरफ़ कूच करने ही वाला था,मगर उस समय पश्चिम में मराठाओं से और दक्षिण में टीपू सुल्तान के साथ भीषण युद्ध में व्यस्त होने के कारण वह अपनी सेना अमोढ़ा की तरफ नहीं भेज सका।
तभी ब्रिटिश संसद ने पिट्स इंडिया एक्ट पारित कर दिया ,जिसमें स्पष्ट कर दिया गया था कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी देशी रियासतों के प्रति अहस्तक्षेप का रास्ता अपनाए। यह 1784 का दौर था।इस क़ानून के बाद सन 1785 में वारेन हेस्टिंग्स ब्रिटेन वापस बुला लिया गया।
इस मौक़े का लाभ उठाकर राजा जालिम सिंह ने अपना छापामार युद्ध जारी रखा,और समय समय पर घात लगाकर अंग्रेजों को छकाते रहे।उनके छापामार युद्ध से अंग्रेज अफ़सर और सिपाही इतना घबराए हुए थे,कि उन्होंने अमोढ़ा राज्य की तरफ़ देखना ही छोड़ दिया था।
अंग्रेजों की विशाल सैन्य शक्ति के सामने उनकी सेना बहुत छोटी थी तथा संसाधन भी बहुत सीमित थे। इसकी परवाह किए बिना उन्होंने अमोढ़ा राज्य के प्रत्येक क्षत्रिय परिवारों के एक सदस्य को अपनी सेना में भर्ती होने का आह्वान किया और उन्हें युद्ध कला का अभ्यास कराया।उन्होंने अपनी सेना में पठानो को भी भर्ती किया और अपनी सेना की अग्रिम पंक्ति में जगह दिया,यह उनके व्यक्तित्व का ही कमाल था कि क्षत्रिय सैनिकों की तरह पठान सैनिक भी उनके लिए सदैव जान देने को तैयार रहते थे।
१७८३ तक उन्होंने आसपास के क्षत्रिय और पठानो तथा सन्यासी आंदोलन के घुमक्कडो जिसमें मदारी और बरहना जाती के लोग थे अपने साथ मिलाकर 11000/ सैनिकों की सेना तैयार कर ली थी। उनके रुतबे का जनसाधारण पर बड़ा असर था,अंग्रेज इसी लिए परेशान रहते थे।अंग्रेज़ों की विशाल सैन्य शक्ति के सामने उन्होंने गुरिल्ला युद्ध अपनाया।छिट-पुट संघर्ष में अंग्रेज कई बार परास्त हुए।इस तरह राजा जालिम सिंह १७८५ तक अंग्रेजो से लगातार लड़ते रहे।
फिर वह मनहूस दौर भी आया,अमोढ़ा राज्य द्वारा मुग़लों की अधीनता अस्वीकार कर देने की वजह से मृतक नवाब शिराजुद्दौला का शहज़ादा आसिफुद्दौला राजा जालिम सिंह से खार खाए बैठा था।उसने मेजर क्राऊफ़ोर्ड को 15 जनवरी 1786 को एक पत्र लिखकर राजा अमोढ़ा,राजा सत्तासी,(गोरखपुर) राजा बहराइच को सबक़ सिखाने के लिए एक बड़े सैनिक रेजिमेंट को जल्द से जल्द अमोढ़ा भेजने की माँग की।
मेजर क्राऊफ़ोर्ड ने आसिफ़ुद्दौला के कहने पर एक बड़ा सैनिक रेजिमेंट राजा जालिम सिंह को ज़िंदा पकड़ने के लिए अमोढ़ा की तरफ भेज दिया,मगर राजा साहब छापामार युद्ध प्रणाली तथा भेष बदलने में इतने माहिर थे कि उनको पकड़ना तो दूर पहचान पाना बहुत मुश्किल था।मगर कहावत है कि कभी कभी मनुष्य के सदगुण भी घातक हो जाते हैं ऐसा ही एक अदभुत क्षत्रियोचित रजोगुण राजा साहब के अंदर था,वह कभी भी किसी भी परिस्थिति में सिर नहीं झुकाते थे।
आसिफ़ुद्दौला ने राजा जालिम सिंह के इसी गुण की वजह से उनको पहचान कर पकड़ने का जाल बिछवाया।
इधर राजा जालिम सिंह को आभास हो चला था कि इस बार लड़ाई आर या पार की होने वाली है अतः उन्होंने अपने बड़े पुत्र पृथापति सिंह को अमोढ़ा का युवराज घोषित कर दिया।और स्वयं केशरिया बाना धारण करके पूरी ताक़त के साथ अंग्रेजों और नवाब आसिफ़ुद्दौला के खिलाफ रणभेरी बजा दिया।
वीर और स्वाभिमानी क्षत्रिय कभी धोखेबाज़ या षड्यन्त्रकारी नहीं होता वह बाहर से कठोर मगर अंदर से निश्छल एवं कोमल होता है। आसिफ़ुद्दौला का एक संदेशवाहक पड़ोसी धर्म का उदाहरण देकर राजा साहब को यह समझाने में कामयाब रहा,कि नवाब सारे गिले शिकवे भुलाकर फिर से एक अच्छे पड़ोसी की भाँति एकजुट होकर रहना चाहता है। निर्मल हृदय राजा ने बदले में यह संदेश भेजा कि यदि अंग्रेजो को देश से बाहर निकालने के लिए नवाब आसिफ़ुद्दौला हमारा साथ दें,और एक गठबंधन बनाएँ,तो हम सभी हिंदू राजा उनके ध्वज तले एकजुट होकर अंग्रेजों से लड़ने को तैयार हैं।
परस्पर वार्ता और मुद्दों की सहमती के लिए गुलाबवाड़ी में मिलना तय हुआ,राजासाहब के स्वागतार्थ गुलाबवाड़ी दुल्हन की तरह सजी थी,मुख्यद्वार को पार करके जब सभागार में पहुँचे तो उन्होंने देखा कि प्रवेशद्वार पर बंदनवार बहुत नीचे तक लटक रही थी,इतनी कम ऊँचाई से ७फ़ुटा जवान बिना सिर झुकाए प्रवेश नहीं कर सकता था। किसी के सामने कभी सर ना झुकाने वाले राजा साहब ने अपनी तलवार से उस बंदनवार को काट दिया।इससे पहले कि वह सभागार की तरफ बढ़ते वहाँ स्वागत और सुरक्षा हेतु खड़े करिंदो के हाथों में तलवार,भाले खुखरी,फरसे और बंदूक़ें चमकने लगी थीं।
धोखे का अहसास होते ही उस स्वतंत्रता प्रेमी महावीर के शरीर में जैसी बिजली कौंधी हो,बड़े वेग के साथ धोखेबाज़ों के सैन्य दल को गाजर,मूली की तरह काटते हुए,राजा जालिम सिंह अपने ११ विस्वस्त सैनिकों के साथ बाहर की तरफ बढ़े।उन रनबाँकुरों के अदम्य शौर्य के सामने नवाब की 500 सैनिकों की टुकड़ी बहुत छोटी लग रही थी।
राजा जालिम सिंह विश्वासघाती दुश्मनों का मजबूत घेरा तोड़ने में कामयाब रहे,मगर इस खूनी संघर्ष में उनके ११ विस्वस्त साथी वीरगति को प्राप्त हो चुके थे,और वह स्वयं बुरी तरह से घायल थे।सरयू तट पर पहुँच कर उन्होंने देखा कि अंग्रेजो की एक बड़ी सैन्य टुकड़ी पूरब दिशा में उनको पकड़ने के लिए घेरा डाले तैयार थी।
एक पल रुककर राजा साहब ने कुछ सोचा,फिर बड़े बेग से अपने घोड़े को नदी को घेरकर खड़े अंग्रेज़ी सैन्य टुकड़ी के बीच की तरफ दौड़ा दिया,अंग्रेजों ने इस तरह के दुस्साहस की कल्पना भी नहीं की थी। इससे पहले की अंग्रेज़ी सेना संभल पाती वह नदी के पास तक पहुँच गए।मगर तब तक पहले से ज़ख़्मी शरीर में अंग्रेजों की कई गोलियाँ घुस चुकी थीं,इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और बड़ी मज़बूती से घोड़े के पीठ पर बैठकर अपनी तलवार से दुश्मनों का सिर उनके धड़ से अलग करते हुए वह उफनती नदी में कूद पड़े।
वह मनहूस दिन सन १७८६ के श्रावण मास की नागपंचमी का था,उनको पकड़ने के लिए सैनिकों की एक टुकड़ी सरयू नदी के उफनते पानी में उतारी गयी,मगर कोई भी सैनिक उस “सरयू पुत्र” स्वतंत्रता के दीवाने महाराजा जालिम सिंह को पकड़ना तो दूर उनका पता भी नहीं लगा सकी,कि वह किस तरफ गए।हताश अंग्रेज उन्हें दोबारा पकड़ने की,कभी ना पूरी होनेवाली ख्वाहिश लिए लौट गए।
अमोढ़ा राज्य की चमक फीकी पड़ चुकी थी,मगर सूर्यपताका अभी भी लहरा रही थी, राजा पृथा सिंह महाराज जालिम सिंह के वापस आने की सुखद आश लिए अमोढ़ा को फिर से संवारने का प्रयास कर रहे थे, उन्हें लॉर्ड कॉर्नवालिस से (१७८६ से १७९८) भारतीय रियासतों को अहस्तक्षेप नीति के तहत सिर्फ कर देकर शासन करने की आज़ादी मिली थी l
साभार
सोसल मीडिया